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सम्पूर्ण गांधी वाङ् मय

इसका इस बिनापर विरोध किया है कि हमारे भारतमें इस तरहकी संस्थाएँ मौजूद हैं और, इसलिए, अगर इस विधेयकका उद्देश्य एशियाइयोंका मताधिकार छीनना हो तो वह सफल तो होगा ही नहीं, सिर्फ एक परेशान करनेवाला कानून बनकर रह जायेगा, जिससे अदालती मुकदमेबाजी और खर्चका कोई अन्त न रहेगा। यह बात सभी लोगोंने स्वीकार की है। स्वयं उसके पक्षमें मत देनेवाले सदस्योंका भी यही खयाल था। इस सम्बन्धमें नेटाल-सरकारके मुखपत्रका[१] कथन है :

हम जानते हैं कि भारतमें ऐसी संस्थाएँ हैं और, इसलिए, यह विधेयक भारतीयोंपर लागू नहीं होगा। परन्तु हम स्वीकार कर सकते हैं तो यही विधेयक, दूसरा कर ही नहीं सकते। अगर इससे भारतीयोंका मताधिकार छिनता हो, तो ज्यादा अच्छा कुछ हो ही नहीं सकता। अगर न छिनता हो तो भी डरने की कोई बात नहीं! कारण, भारतीय कभी राजनीतिक प्रभुत्व प्राप्त नहीं कर सकते। और अगर जरूरी ही हुआ तो हम शिक्षा-सम्बन्धी कसौटी मढ़ सकते हैं, या सम्पत्ति-सम्बन्धी योग्यताको बढ़ा सकते हैं। इससे सारे-के-सारे भारतीयोंका मताधिकार तो छिन हो जायेगा, साथ ही एक भी यूरोपीयके मतदान में बाधा न पड़ेगी।

इस तरह नेटालका विधानमंडल भारतीयोंके साथ 'चित भी मेरी पट भी मेरी' का खेल खेल रहा है। नेटालके 'पास्टर' की प्राणघातक छूरियोंसे चीर-फाड़के लिए हम उपयुक्त पात्र समझे गये है। पेरिसके पास्टर और नेटालके पास्टरमें फर्क इतना ही है कि पहला तो मानव जातिको लाभ पहुँचाने के लिए चीर-फाड़ करता था, दूसरा शुद्ध दुराग्रहसे अपने मनोरंजनके लिए इसमें प्रवृत्त होता है। इस कानूनका। राजनीतिक नहीं है। ध्येय तो भारतीयोंको केवल नीचे गिराने का है। नेटालसंसदके एक सदस्यके शब्दोंमें “भारतीयोंका जीवन नेटालकी अपेक्षा उनके अपने देशमें ही अधिक सुखकर बनाना" है। दूसरे एक प्रमुख नेटालीके शब्दोंमें "उन्हें हमेशाके लिए लकड़हारा और पनिहारा बनाये रखना" है। इस समय लगभग १०,००० यूरोपीय मतदाताओंके बीच केवल २५१ भारतीय मतदाता है। इससे स्पष्ट है कि भारतीय मतोंके यूरोपीय मतोंको निगल जानेका कोई खतरा नहीं है। इस विषयके अधिक विस्तृत इतिहासके लिए मैं आपको 'हरी पुस्तिका' पढ़ने की सलाह दूँगा। लन्दन 'टाइम्स' ने, जिसने हमारी मुसीबतोंमें बराबर हमारा साथ दिया है, नेटालके मताधिकार-प्रश्नको लेकर इसी वर्षके २७ जूनके अंकमें इस प्रकार लिखा है :

इस समय श्री चेम्बरलेनके सामने जो प्रश्न है वह सैद्धान्तिक नहीं है। वह प्रश्न दलीलोंका नहीं, जातीय भावनाओंका है। हम अपनी ही प्रजाओंके बीच जाति-युद्ध होने देकर लाभ नहीं उठा सकते। भारत-सरकारके लिए नेटाल को मजदूर भेजना बन्द करके उसकी प्रगतिको एकाएक रोक देना उतना ही गलत होगा, जितना कि नेटालके लिए ब्रिटिश भारतीय प्रजाजनोंको

  1. तात्पर्य नेटाल मर्क्युरी से है।