पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 20.pdf/११८

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टिप्पणियाँ ९७ ! मुझे तो स्टेशनोंपर होनेवाली भीड़ और नारोंको आवाजे भी असह्य जान पड़ती है। नारो और भीडसे स्वराज्य मिलनेवाला नहीं है। उनका समय अब लद गया है। जबतक लोगोमे जागृति नही थी तबतक भले ही उसकी जरूरत महसूस होती रही हो। अब तो लोगोमे जितनी जागृति आनी चाहिए उतनी जागृति आ गई है। नायगराका जलप्रपात ही हमारे हाथ लग गया है। उसका उपयोग भी हम जान गये है। इसलिए हमारा कार्य तो चुपचाप उसका उपयोग करना है। जैसे सरकारको टीकाकी जरूरत नहीं है वैसे ही सरकारसे सहयोग करनेवालो की भी टीका करनेकी जरूरत नहीं । हमारी सारी टीका हमारे कार्योमे समाहित है। यह जगत्का निजी अनुभव है कि आधी छटॉक-भर आचरणका जितना फल होता है उतना मन-भर भाषणो अथवा लेखोका नहीं होता। भाषण अनेक बार हमारे आचरणकी खामियोका दर्पण होता है। बहुत अधिक बोलनेवाला कदाचित् ही अपने कहेका पालन करता है। वचनका पालन करनेवाला कजूसकी भाँति तोले-तोलकर अपने मुखसे शब्द निकालता है। और आज जब हम सरकारके सामने मांग पेश न करके स्वयं अपनेसे करने लगे है तब हमे जो भी टीका करनी हो, जो भी शिकायत हो वह अपने सम्बन्धमे ही होनी चाहिए। अशान्त असहयोगी भावनगरकी जैन कन्या-पाठशालाके सम्बन्धमे वहाँके एक सज्जन अपना नाम देते हुए कुछ दुखजनक बाते लिखते है। मेरे पास वह पत्र कुछ असेसे पड़ा हुआ है लेकिन निरन्तर यात्रापर रहनेकै कारण मै सब पत्रोका जितनी जल्दी चाहता हूँ उतनी जल्दी उत्तर नहीं दे पाता। यद्यपि इन सज्जनने अनुमति दी है तथापि में उनका नाम प्रकाशित नहीं कर रहा हूँ क्योकि मै उन्हे भावनगरमै अनुचित टीकाका पात्र नहीं बनाना चाहता। मैं जानता हूँ कि हममे अभी परस्पर एक-दूसरेकी टीका- चाहे वह शुद्ध हृदयसे ही क्यो न की गई हो--सहन करनेकी शक्ति नहीं आई है। स्वराज्य- चादी व्यक्तिमे तो विषली टीका भी सहन करनेकी शक्ति आनी चाहिए। ये भाई लिखते है कि छठी अप्रैलके पवित्र दिवसपर भी असहयोगियोकी टोली वहाँकी कन्या- पाठशालाको बन्द करवाने के लिए पहुंच गईं। यदि एक भी व्यक्ति विनयपूर्वक समझानेके लिए गया होता तो कुछ भी कहनेको न रहता लेकिन पत्र-लेखकके कथनानुसार तो पूरी टोली वहाँ पहुँच गई। टोलीके मुखियाने बलपूर्वक उसे बन्द करनेके लिए कहा। प्रधान अध्यापकने कुछ दलीले पेश की, जिनके उत्तरमें पत्थरोकी वर्षा हुई। एक कन्याका सिर फूट गया, दूसरीको थोड़ी चोट आई। इतनेमे सौभाग्यसे शान्तिके अर्थको समझनेवाला एक असहयोगी आ गया। उसने पत्थरोकी वर्षा तथा अत्याचारको रोका। इस भाईको मै वधाई देता हूँ। दूसरोके सम्बन्धमे तो मै क्या लिखू। यदि उपर्युक्त हकीकत सही है तो उन्होने छठी तारीखको बदनाम किया, अपनी प्रतिज्ञा भग की और अपना होश-हवास खो बैठे। बलात् पुण्य करवानेकी अनीतिसे छुटकारा चाहनेवाले हम लोग दूसरोपर जोर-जबरदस्ती कैसे कर सकते है ? उपर्युक्त समाचार देनेवाले भाई लिखते है कि पाठशालाके व्यवस्थापकोंने इस उपद्रवके बावजूद पुलिसकी सहायता नहीं मांगी। इस खामोशीके लिए मै व्यवस्थापकोको २०-७ - ?