पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 20.pdf/११९

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९८ सम्पूर्ण गाधी वाङ्मय वधाई देता हूँ। जो शान्तिको भग करते है वे अन्य सब शर्तोका पालन करनेके बावजूद सहयोगी माने जायेगे और असहयोगीके तीरोको सहन करते हुए भी शान्तिका पालन करनेवाले सहयोगीको मैं ऐसा असहयोगी मानता हूँ जो स्वय नहीं जानता कि वह असहयोगी है। "ईश्वर भी स्वराज्य भेटमें नहीं दे सकता" सत्याग्रह सप्ताहके समय मैने जो सन्देश दिया था, यह वाक्य उस सन्देशमै से है। भाई रजबअली झीणाभाई लिखते है कि इस वाक्यमे निहित रहस्यको बहुत कम लोग समझेगे और इससे आभास होता है कि मैने ईश्वरकी शक्तिको भी सीमित कर दिया है तथा यह बात धार्मिक लोगोके दुखका कारण भी हो सकती है। मैं स्वय अपनेको आस्तिक मानता हूँ, ईश्वर-तत्त्वको माननेवाला हूँ। मैने तो एक स्पष्ट वातको अत्यन्त स्पष्ट शब्दोमे लिखकर ईश्वरके कानूनको जनताके सम्मुख प्रस्तुत किया है। पापीको स्वर्ग देनेकी बात ईश्वरने अपने हाथमे रखी ही नहीं है। अगर यह कहे कि ईश्वरने कानून बनाकर मानो अपने हाथ ही वो लिए है तो अधिक उचित होगा। 'ईश्वर सर्वशक्तिमान् है, इसी कारण उसने अपवादरहित कानूनोकी रचना की है।' स्वराज्य व्यक्ति और राष्ट्रके अस्तित्वका परिचायक है। जिस तरह उसीकी भूख शान्त होगी जो व्यक्ति खाना खायेगा, उसी तरह वही व्यक्ति स्वतन्त्र होगा जो अपनी परा- धीनताको उतार फेकेगा। हम शराब न छोड़े, विदेशी कपडेका त्याग न करे और हिन्दू और मुसलमान लड़ते रहे तो क्या भगवान् स्वराज्य देगा? क्या वह दे सकता है? लेकिन यदि हम लोकमतके द्वारा विदेशी कपड़े और शराबका परित्याग करे तो क्या हमे स्वराज्य नहीं मिलेगा? ईश्वरीय विधानको भग करनेके वावजूद कोई ईश्वरसे स्वर्ग- प्राप्तिकी आशा रख सकता है? कदापि नहीं रख सकता। इसीसे हम प्रार्थना करते है, सो भी स्वराज्यके लिए नहीं बल्कि स्वराज्यके लिए शक्ति प्राप्त करनेके लिए करते है। प्रार्थनाका अर्थ ही यह है कि अमुक वस्तु अथवा स्थितिको प्राप्त करनेकी अपनी तीव्र इच्छाको वाणी देना। [गुजरातीसे] नवजीवन, १५-५-१९२१