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परिवहन आदि सार्वजनिक सेवाएँ अच्छी-बुरी सबके लिए हैं। हज्जाम, धोबी और भिश्ती घर नहीं पूछते। खुनीको भी पानी पीनेका हक है। इस तरह अच्छे-बुरेमें जब हम विवेक करना सीखेंगे तभी स्वराज्य जल्दी मिलेगा। मद्य-निषेधमें मुझे बहिष्कारका इतना ही उपयोग करनेकी आवश्यकता जान पड़ती है। इसीसे बहिष्कारपर इतना विचार किया। अनेक स्थलोंपर असभ्य बहिष्कारका कड़वा फल मिला है। असभ्यता मात्रका त्याग करनेमें ही हमारा बल निहित है। शराबकी आदतसे व्यक्ति उसका इतना अधिक गुलाम हो जाता है कि वह दयाका पात्र बन जाता है। दयासे ही हम उसे सुधार सकते हैं।

शराबकी दुकानवालों का भी तिरस्कार न करें। उनके लिए अपने लम्बे समयसे चले आ रहे धन्धेको छोड़ना सहल बात नहीं है। उन्हें उसकी एवज में दूसरा धन्धा सूझना चाहिए, उसकी जानकारी होनी चाहिए। यदि मैं समझा सकूं तो सब मद्य विक्रेताओंको पींजनेवाला, कातनेवाला और बुननेवाला बना दूं। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि उससे उन्हें पूरी आजीविका मिल जायेगी। शराबकी दुकानोंको चलाने के काममें स्त्रियाँ और बच्चे काम नहीं कर सकते, कातने बुनने में सब मदद कर सकते हैं। इसलिए किसीको किसीका पेट भरने की जरूरत नहीं रहती। सभी थोड़ा-बहुत अपना-अपना योगदान दे सकते हैं।

कांग्रेस के सदस्य बनाने, तिलक महाराजके स्मरणार्थ पैसा इकट्ठा करने और चरखेका प्रचार करनेके लिए सभाकी जरूरत नहीं है, बल्कि अनेक स्वयंसेवकोंको घर-घर जाना चाहिए। यदि इस तरह काम नहीं होता तो जून मास तककी योजना सफल नहीं होगी।

हमें बातें करनेका भी अवकाश नहीं है। मैं तो अपने ही उदाहरणसे समझता हूँ कि अगर एक भी क्षण बातोंमें, दर्शनमें अथवा आलस्यमें जाता है तो वह बादमें हाथ नहीं आता। हमारे पास अभी न तो हर्ष [ प्रकट करने ] का समय है और न शोकका ही। जिन्होंने कार्य करनेका रस चखा है उनसे तो मैं अवश्य कहना चाहता हूँ कि उन्हें एक क्षण भी खाली नहीं जाने देना चाहिए। कोई भी क्षण हमारा अपना नहीं है, उसे तो हम देशको अर्पित कर चुके हैं।

चरखेका अर्थ

चरखे के प्रचारका अर्थ यह नहीं है कि समस्त परिवारोंमें चरखेको स्थान दिलाने के बाद हम अपने कर्त्तव्यसे मुक्त हो गये। इसका सच्चा अर्थ तो यह है कि चरखा बराबर चलता रहे और परिवारके लोग खादी पहनने लगें। प्रत्येक चरखा कमसे कम चार घंटे चलना चाहिए, एक घंटे में कमसे कम तीन तोला काता जाना चाहिए। हर गाँव में इसी प्रमाणमें प्रति चरखेके हिसाबसे सूत कतना चाहिए। तभी सच्चे अर्थों में चरखा चलनेकी बात कही जायेगी। यह जनता द्वारा आलस्यको छोड़नेकी, प्रत्येक कार्यकर्त्ता द्वारा इस कार्यमें योगदान देनेकी बात है। यह बात चरखा बना लेनेसे ही पूरी होनेवाली नहीं है।

इस तरह जब नियमपूर्वक काम चलेगा तभी स्वराज्य मिलेगा।