पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 20.pdf/१५

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नौ

की होली जलाई थी। उन्होंने इस बातके महत्त्वको इन शब्दोंमें व्यक्त किया :"मैं होली जलाने की इस रस्मको एक पुनीत यज्ञ मानता हूँ।" (पृष्ठ ४७४) “बाहरी अग्नि मेरे लिए अन्तःस्थित अग्निका प्रतीक है । वह सारी दुर्बलताओंको भस्मीभूत कर दे। इस प्रकार परिष्कृत विवेक हमें स्वदेशीकी सच्ची आर्थिक उपयोगिता बताये ।" (पृष्ठ ४७९) “सभी के चेहरोंपर स्वतन्त्रताकी आभा दमक उठी। यह शानदार काम बड़े शानदार ढंगसे सम्पन्न हुआ ।" (पृष्ठ ५०५) श्री एन्ड्रयूजको लिखे गये एक पत्र में उन्होंने इसका औचित्य समझाते हुए लिखा: “मैं इस समय इस प्रयत्नमें हूँ कि शल्य-क्रिया हाथको दृढ़ रखकर की जाये जिससे वह सुचारु रूपसे हो सके । मैं जीवनमें अनुशासन और संयम चाहता हूँ ।... लोग जो पापीसे घृणा करते थे किस प्रकार चुपचाप अनजाने ही पापीके बजाय पापसे घृणा करने लगे हैं।"(पृष्ठ ५१९)

जिस स्वराज्यकी प्राप्तिके लिए गांधीजी लोगोंको तैयार कर रहे थे, उस स्व के स्वरूपको गांधीजीने बहुत स्पष्ट करके कह रखा था: स्वराज्य व्यक्ति और राष्ट्रके अस्तित्वका परिचायक है । " (पृष्ठ ९८) स्वराज्य मृत्युके भयका त्याग" है। (पृष्ठ ५२४) कामके पीछे पड़नेकी योग्यता ही स्वराज्य है। (पृष्ठ ५४९) " राम-राज्यका अर्थ स्वराज्य, धर्मराज्य, लोकराज्य करते हैं। वैसा राज्य तो तभी सम्भव है जब जनता धर्मनिष्ठ और वीर्यवान् बनेगी।” (पृष्ठ १२०) "भगवान् भी हमें स्वराज्य नहीं दे सकता। उसे तो हमें खुद ही हासिल करना होगा।" (पृष्ठ१३२)

किन्तु गांधीजी स्वराज्यका कोई परिपूर्ण नकशा बनाकर देना अनावश्यक समझते थे । इसीलिए जब विपिनचन्द्र पालने इस सम्बन्धमें प्रश्न उठाया तो गांधीजीने इसे असामयिक माना और कहा, इसका प्रयत्न तो “ उस कारीगरकी तरहका था जो इमारतकी पक्की नींव तैयार करनेसे पहले ही सबसे ऊपरकी मंजिल बनाना शुरू कर दे।" (पृष्ठ २३५)

ऐसे स्वराज्य अथवा धर्मराज्यको पानेका साधन अहिंसक असहयोग ही हो सकता है। गांधीजीने कहा: “मैं यदि कुछ चाहता हूँ तो केवल सत्यकी विजय चाहता हूँ । मैंने कभी भी इसपर विश्वास नहीं किया और आज भी नहीं करता कि लक्ष्य ही सब-कुछ है । आप भले लक्ष्यको बुरे साधनोंके जरिए प्राप्त नहीं कर सकते।...(पृष्ठ ५१२) वे चाहते थे कि भारत सिर उठाकर खड़ा हो सके । स्वतन्त्र भारतमें कोई वर्ग विशेष राज्य कर सकता है इसकी गुंजाइश भी वे नहीं मानते थे। राज्य तो जनताका ही हो सकता है और वह उसके प्रति जाग उठी है । "भारतवासी...इस बातको बहुत अच्छी तरह समझ गये हैं कि कोई भी अच्छीसे-अच्छी सरकार अपनी सरकारका, स्वराज्यका स्थान नहीं ले सकती।" (पृष्ठ १८९) कुछ लोगोंका यह कथन कि भारतका भावी लक्ष्य भले ही स्वतन्त्रता हो, आज तो उसे किसीके आश्रयमें ही रहना चाहिए" (पृष्ठ १८९) गांधीजीकी समझमें ही नहीं आता था। उनका कहना था कि जबतक जलियाँवाला बागमें किये गये रक्तपात और इस्लाम के प्रति विश्वासघातका कलंक बना हुआ है, तबतक भारत शान्त नहीं रह सकता । अशान्तिके कारणोंका परिमार्जन किया जाना चाहिए। यदि इंग्लैंड अपने इस कलंकको धो डाले तो भारत "साम्राज्य के अन्तर्गत रहकर" भी स्वराज्य स्वीकार कर सकता