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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


हैं, हममें खामियाँ हैं इसलिए दूसरोंके साथ हमें नरमीसे पेश आना चाहिए और किसीके इरादोंपर शुबहा करनेकी जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए।

इसलिए वाइसराय महोदयसे मुलाकातका मौका आते ही मैं तुरन्त उनसे मिलने चला गया और उन्हें बताया कि हमारा आन्दोलन धर्मपरक है जिसका उद्देश्य भारतीय राजनीतिमें व्याप्त भ्रष्टाचार, धोखाधड़ी, आतंकवाद और गोरी जातिकी प्रभुताको मिटाना है।

पाठकोंके लिए व्यर्थका कुतूहल अच्छा नहीं। अखबारोंके तथाकथित समाचारों पर उन्हें विश्वास नहीं करना चाहिए। वाइसराय महोदय और मेरे बीच जो बातें हुईं उनके ब्यौरेमें जानेकी जरूरत नहीं। अच्छा हो कि उसपर पर्दा पड़ा रहने दिया जाये। लेकिन मैं पाठकोंको इतना विश्वास जरूर दिलाता हूँ कि मैंने अपनी सामर्थ्य भर वाइसराय महोदयको हमारे तीनों दावों — खिलाफत, पंजाब और स्वराज्यकी बात समझाई और उन्हें असहयोगका मूल कारण भी बताया। उन्होंने मेरी बातको धैर्य, विनम्रता और ध्यानसे सुना। मैंने उन्हें जो उचित है वह करनेके लिए उत्सुक पाया। हमने आजकी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण समस्याओंके बारेमें दिल खोलकर चर्चा की। हमने अहिंसा के बारेमें भी चर्चा की और यह हम दोनोंकी समान रुचि और आस्थाका विषय निकला। इसके बारेमें मैं फिर कभी विस्तारसे लिखूंगा।

हम दोनोंने एक-दूसरेको समझा, इससे अधिक भी मुलाकातमें कुछ था, यह मैं नहीं कह सकता। मगर एक-दूसरेको समझ लेना भी अपने-आपमें काफी बड़ा लाभ है; ऐसा मैं मानता हूँ और कुछ लोग इसमें मुझसे जरूर सहमत होंगे। और अगर इस तरह देखा जाये तो यह मुलाकात बहुत कामयाब रही।

लेकिन इतने लम्बे बहस-मुबाहसे के बाद इस बातमें मेरा विश्वास पहलेसे ज्यादा दृढ़ हुआ है कि हमारी मुक्ति खुद अपने ही प्रयत्नोंपर निर्भर करती है। वाइसराय महोदय हमारी मदद कर सकते हैं और बाधा भी पहुँचा सकते हैं। यों मैं उनसे मदद की ही उम्मीद करता हूँ।

मतलब यह कि हमें दूने जोशके साथ अपना कार्यक्रम पूरा करनेमें जुट जाना चाहिए। कार्यक्रम स्पष्ट ही यह है : (१) अस्पृश्यताका निवारण, (२) शराबखोरी- के अभिशापको मिटाना, (३) चरखेका अनवरत प्रचार और विदेशी कपड़े के सम्पूर्ण बहिष्कार की सीमातक खादीका निरन्तर उत्पादन, (४) कांग्रेस में सदस्योंकी भरती और (५) तिलक स्वराज्य-कोषके लिए चन्दा इकट्ठा करना।

हिन्दू-मुस्लिम एकताको मजबूत करने तथा अहिंसाका और अधिक वातावरण तैयार करनेके लिए अब उतने जोरदार प्रचारकी आवश्यकता नहीं रही।

अस्पृश्यता निवारणको मैंने सबसे ऊपर रखा है, क्योंकि इस मामलेमें मुझे कुछ ढिलाई दिखाई देती है। हिन्दू असहयोगियोंको इस ओरसे उदासीन नहीं रहना चाहिए। खिलाफत के मामलेमें जो अन्याय हुआ है उसे हम मिटा सकते हैं, लेकिन राष्ट्र रूपी शरीरके हिन्दू अवयवोंमें भिदे हुए अस्पृश्यताके जहरके रहते हम स्वराज्यकी अपनी मंजिलतक कभी भी नहीं पहुँच सकते। अगर हम भारतकी आबादीके पाँचवें हिस्सेको निरन्तर दबाये रहें और राष्ट्रीय संस्कृतिके अमृत फलसे उन्हें वंचित किये रहें तो