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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


करते हैं। तो मैं एक बार फिर अपने दृष्टिकोणको बहुत स्पष्ट शब्दों में रख देना उचित समझता हूँ:

(१) मैं नहीं मानता कि अफगान भारतपर हमला करना चाहते हैं।
(२) मैं मानता हूँ कि सरकार अफगानी हमलेका मुकाबला करनेके लिए पूरी तरह तैयार है।
(३) मैं दुःखके साथ मंजूर करता हूँ कि अगर भारतपर अफगानोंने हमला किया तो सभी राजा-महाराजा सरकारकी बिना शर्त मदद करेंगे।
(४) मैं यह भी मानता हूँ कि हम लोगोंमें अभीतक इतनी पस्ती, आत्मविश्वास की इतनी कमी, अफगानोंके इरादोंके बारेमें इतने सन्देह और हिन्दू-मुसलमानोंमें पारस्परिक अविश्वास इतना अधिक है कि बहुत से लोग तो मारे डर और घबराहटके हो सरकारकी मदद करनेको दौड़ पड़ेंगे और इस तरह देशकी गुलामीकी जंजीरोंको और भी कस देंगे।
(५) सैद्धान्तिक रूपसे तो भारतपर होनेवाले हमले और खिलाफतकी खातिर ब्रिटिश सरकारपर किये जानेवाले हमले में भेद किया जा सकता है; पर व्यावहारिक रूपसे मैं इस बातको नहीं मानता कि अफगान लोग सरकारको तंग करनेके इरादेसे भारतपर हमला करेंगे और फतह मिल जानेपर यहाँ अपनी हुकूमत कायम करनेका लोभ नहीं करेंगे।
(६) अपनी इस मान्यताके बावजूद मैं मानता हूँ कि असहयोगी जिस सरकार को मिटाना या सुधारना चाहता है उसकी बिना शर्त सहायता उसके धर्मके विपरीत है।
(७) निष्ठापूर्वक युद्धका विरोध करनेवाले गिने-चुने लोग चाहे तत्कालीन घटनाक्रमको प्रभावित न कर सकें, परन्तु वे बहादुर भारतके फलने-फूलनेका बीज तो बो ही देंगे।
(८) अफगान लोगोंके हाथों भारत तबाह हो जाये, यह मुझे मंजूर है; लेकिन अफगानी हमलावरोंसे इज्जत देकर आजादीका सौदा किया जाये, यह मुझे कभी बरदाश्त न होगा। जिस सरकारको खिलाफत और पंजाबके रिसते घाव कुरेदते रहनेका जरा भी पछतावा नहीं है उससे भारतकी रक्षा करवाना, भारतकी इज्जत बचना है।
(९) फिर भी अंग्रेज जातिमें मेरी इतनी आस्था जरूर है कि हमारे द्वारा आवश्यक मात्रामं संकल्प-बलका प्रदर्शन और प्रचुर परिमाणमें आत्म-बलिदान किये जानेका उनपर ठीक प्रभाव होगा; उनकी प्रतिक्रिया अनुकूल होगी। इतिहासके अपने ज्ञानके आधारपर मैं जानता हूँ कि शुद्ध न्यायकी बिलकुल सीधी-सादी बातका उनपर कोई असर नहीं होता। उनको वह कोई हवाई-खयाल सा लगता है। लेकिन जब उसी न्यायकी बात के पीछे शक्ति भी होती है तब उनकी दूरदर्शिता काम करने लगती है। शक्ति होनी चाहिए; फिर वह निरी भौतिक शक्ति है या आत्मिक शक्ति, इसमें वे कोई अन्तर नहीं करते।