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८०. कविवरको चिन्ता

लॉर्ड हार्डिगने डाक्टर रवीन्द्रनाथ ठाकुरको एशियाका महाकवि कहा था। पर अब श्री रवीन्द्रबाबू न सिर्फ एशियाके बल्कि संसार भरके महाकवियोंमें गिने जा रहे हैं। यदि अभी नहीं तो बहुत जल्द उनका नाम संसारभरके महाकवियों में गिना जाने लगेगा। दिनपर-दिन उनकी प्रतिष्ठा बढ़नेसे उनकी जिम्मेदारी भी बढ़ती जा रही है। समूचे संसारके लिए भारतके पास जो सन्देश है उसकी कवित्वपूर्ण व्याख्या करके भारतकी उन्होंने सबसे बड़ी सेवा की है। इसीलिए रवीन्द्रबाबूको सच्चे हृदयसे इस बातकी चिन्ता है कि भारतवासी भारतमाताके नामसे कोई झूठा या सारहीन सन्देश संसारको न सुनायें। हमारे देशका नाम न डूबने पाये, इस बातकी चिन्ता करना रवीन्द्रबाबूके लिए स्वाभाविक ही है। उन्होंने लिखा है, “मैंने इस आन्दो- उनके स्वर के साथ अपना स्वर मिलानेकी भरसक कोशिश की पर खेदके साथ स्वीकार करना पड़ता है कि इसमें मुझे निराश होना पड़ा।” उन्होंने स्वीकार किया है कि वे इस गुत्थी में उलझकर रह गये हैं। उन्होंने यह भी लिखा है कि असहयोग आन्दोलनके शोरगुल में उनको अपनी हृदय-वीणाके योग्य कोई स्वर नहीं मिल सका। तीन जोर- दार पत्रोंमें[१] उन्होंने इस आन्दोलनके सम्बन्धमें अपने सन्देह प्रकट किये हैं। अन्तमें वे इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि असहयोगका आन्दोलन इतना गम्भीर और गौरवपूर्ण नहीं है कि वह उस भारतवर्षके योग्य हो सके जिसे वे अपनी कल्पनाका आदर्श समझे हुए हैं। उनका मत है कि असहयोगका सिद्धान्त मात्र नकारात्मकता और नैराश्यका सिद्धान्त है। रवीन्द्रबाबूकी समझमें यह सिद्धान्त अलगाव, भेदभाव और अनुदारता से भरा हुआ है।

रवीन्द्रबाबूके हृदय में भारतवर्षकी प्रतिष्ठाकी रक्षा के लिए जो चिन्ता है उसपर हर हिन्दुस्तानीको गर्व होना चाहिए। यह बहुत अच्छा हुआ कि उन्होंने अपना सन्देश ऐसी सुन्दर और सरल भाषामें प्रकट करके हमारे पास भेजा है।

मैं रवीन्द्रबाबू के सन्देहों का उत्तर बड़ी नम्रताके साथ देनेका प्रयत्न करूँगा। मैं रवीन्द्रबाबू या उन लोगोंको जिनके हृदयपर रवीन्द्रबाबूकी कवित्वपूर्ण भाषाका प्रभाव पड़ा है शायद विश्वास न दिला सकूं पर मैं उनको और कुल भारतवर्षको यह विश्वास दिलाना चाहता हूँ कि असहयोगकी संकल्पनामें वैसा कुछ भी नहीं जिसकी उनको आशंका है। मैं उन्हें यह विश्वास दिलाना चाहता हूँ कि यदि उनके देशने असह्योग के सिद्धान्तको स्वीकार किया है तो इसमें उनके लिए लज्जाकी कोई बात नहीं है। अगर अमल करनेपर अन्ततः यह सिद्धान्त असफल सिद्ध हो जाये तो यह सिद्धान्तका दोष नहीं कहा जायेगा, क्योंकि अगर सचाईको अमली रूप देनेवाले सफल न हों तो इसमें सचाईका कोई दोष नहीं। यह अवश्य हो सकता है कि असहयोग आन्दोलन अपने उचित समयके पहले ही शुरू हो गया हो। तब हिन्दुस्तान और संसार दोनोंको उस

२०-११

  1. देखिए परिशिष्ट ४।