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कविवरकी चिन्ता


वास्तवमें रवीन्द्रबाबू मूलतः असहयोग-सिद्धान्तके विरुद्ध हैं। ऐसी हालत में अगर उन्होंने स्कूल और कालेजोंसे विद्यार्थियोंके निकलनेका विरोध किया तो कोई बड़ी बात नहीं है। उनका ऐसा करना स्वाभाविक ही है। रवीन्द्रबाबूके हृदयको ऐसी हरएक वस्तुसे धक्का पहुँचता है जिसका उद्देश्य खण्डन करना हो। उनकी आत्मा धर्मकी उन आज्ञाओंके विरोध में उठ खड़ी होती है जो हमें किसी वस्तुका खण्डन करनेके लिए कहती हैं। मैं उनका मत उन्हींके अनूठे शब्दों में आपके सामने रखता हूँ : “एक महाशयने वर्तमान आन्दोलनके पक्षमें मुझसे कई बार यह कहा है कि प्रारम्भमें किसी उद्देश्यको स्वीकार करनेकी अपेक्षा उसे अस्वीकार करनेका भाव ही व्यक्तिमें अधिक प्रबल रहता है। यद्यपि मैं यह मानता हूँ कि वास्तवमें बात ऐसी ही है, पर मैं इसे सचाई नहीं मान सकता भारतवर्ष में ब्रह्मविद्याका उद्देश्य मुक्ति या मोक्ष है पर बौद्ध-धर्मका उद्देश्य निर्वाण प्राप्त करना है। मुक्ति हमारा ध्यान सत्यके मण्डनात्मक पक्षकी ओर और निर्वाण उसके खण्डनात्मक पक्षकी ओर खींचता है। इसीलिए बुद्धने इस बातपर जोर दिया कि संसार दुःखमय है तथा उससे छुटकारा पाना हमारा धर्म है, और ब्रह्मविद्याने इस बातपर जोर दिया कि संसार आनन्दमय है और उस आनन्दको प्राप्त करना हमारा परम कर्त्तव्य है।” इन वाक्यों और इसी तरहके दूसरे वाक्योंसे पाठकगण रवीन्द्रबाबूकी मानसिक वृत्तिका पता लगा सकते हैं। मेरी विनम्र रायमें किसी बातको अस्वीकार करना उतना ही बड़ा आदर्श हो सकता है जितना किसी बातको स्वीकार करना। असत्यको अस्वीकार करना भी उतना ही जरूरी है जितना कि सत्यको स्वीकार करना। सभी धर्म हमें यही शिक्षा देते हैं कि दो विरोधी शक्तियाँ हमपर अपना प्रभाव डालती रहती हैं, और मनुष्य जीवनके प्रयत्नोंकी सार्थकता इसी बातमें है कि वह जो वस्तुएँ स्वीकार करने योग्य हैं उन्हें स्वीकार करता रहे और जो अस्वीकार करने योग्य हैं उन्हें अस्वीकार करता रहे। बुराईके प्रति असहयोग करना हमारा उतना ही बड़ा कर्त्तव्य है जितना कि भलाईके साथ सहयोग करना। मैं साहसपूर्वक कह सकता हूँ कि रवीन्द्रबाबूने निर्वाणको केवल एक खण्डनात्मक या अभावसूचक दशा बतलाकर बौद्धधर्मके साथ अनजाने ही बड़ा अन्याय किया है। मैं साहसके साथ यह भी कह सकता हूँ कि जिस हदतक निर्वाण एक अभावात्मक दशा है उसी हदतक मुक्ति भी अभावकी सूचक अवस्था है। शरीरके बन्धनसे छुटकारा पाना या उस बन्धनका बिलकुल नाश कर देना आनन्द प्राप्त करना है। में अपनी दलीलके इस हिस्सेको खत्म करते हुए इस बातकी ओर ध्यान खींचना चाहता हूँ कि उपनिषदोंके रचयिताओंने ब्रह्मका सबसे अच्छा वर्णन ‘नेति नेति’ कहकर ही किया है।

इसलिए मेरी समझमें रवीन्द्रबाबूको असहयोग आन्दोलनके अभावात्मक या खण्डनात्मक पक्षसे चौंकनेकी कोई जरूरत न थी। हम लोगोंने ‘नहीं’ कहनेकी शक्ति बिलकुल गँवा दी है। सरकारके किसी काममें ‘नहीं’ कहना पाप और अभक्ति गिना जाने लगा था। बोनेके पहले निराई करना बहुत जरूरी होता है, जान-बूझकर पक्के इरादेके साथ असहयोग करना वैसा ही है। खेतीके लिए बुआई जितनी जरूरी है उतनी ही निराई भी। हर एक किसान जानता है कि फसलके बढ़ते रहनेकी अवधि में भी खुरपीका उपयोग करते रहना जरूरी है । इस असहयोग आन्दोलनके रूपमें राष्ट्रकी ओरसे सरकार