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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


चोरोंकों चोरी करनेकी सुविधाएँ तो नहीं जुटाते। मैं शराबखोरीको चोरी और यहाँ तक कि वेश्यावृत्तिसे भी ज्यादा निन्दनीय मानता हूँ। क्या शराबखोरी अक्सर ही इन दोनों बुराइयोंको पैदा नहीं करती? मेरा अनुरोध है कि आप शराबकी चुंगीसे होनेवाली आमदनी और शराब के ठेकोंका नामनिशान मिटानेमें देशकी जनताका साथ दें। यदि उनका दिया हुआ रुपया-पैसा लौटा दिया जाये तो ऐसे कई शराब-विक्रेता हैं जो खुशी-खुशी अपनी दूकानें बन्द कर देंगे।

सवाल उठ सकता है कि ‘बच्चोंकी पढ़ाई-लिखाईका क्या होगा?’ मैं आपसे यह कहनेकी धृष्टता करता हूँ कि शराबकी चुंगीसे मिलनेवाले धनसे देशके बच्चोंकी पढ़ाई-लिखाईका इन्तजाम करना हमारे लिए बड़ा ही शर्मनाक है। आगे आनेवाली पीढ़ियाँ हमको कोसेंगी, और बिलकुल ठीक कोसेंगी। अगर हम यह फैसला करनेकी बुद्धिमानी नहीं करते कि हम शराबखोरीको खत्म करके रहेंगे, चाहे फिर अपने बच्चों की शिक्षाका इन्तजाम न कर पायें। लेकिन इसकी नौबत नहीं आयेगी। हम स्कूल कालेजोंमें कताई शुरू करवाकर शिक्षाको खर्चके मामलेमें आत्मनिर्भर बना सकते हैं। मैं जानता हूँ कि आपमें से कई भाई मेरे इस ख्यालको मजाकमें उड़ा देते हैं। पर मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि शिक्षाकी समस्याका इससे अच्छा हल कोई दूसरा नहीं। देश अब और ज्यादा करोंका भार बरदाश्त नहीं कर सकता। मौजूदा कर भी बहुत भारी पड़ते हैं। अगर निकट भविष्यमें जनताकी दिन-दिन बढ़ती गरीबीको रोकना हो और उसमें काफी कमी करनी हो तो हमें अफीम और शराबकी चुंगीसे होनेवाली आमदनी ही नहीं अन्य करोंकी आमदनी भी छोड़ देनी पड़ेगी। इसी सिलसिले में सवाल उठता है मौजूदा शासन-पद्धतिका। ‘सुधार’ जनतामें और अधिक गरीबी लाये हैं। शासनका सालाना खर्च बढ़ गया है। मौजूदा शासन पद्धतिका गहराईसे अध्ययन करनेपर मुझे पूर्ण विश्वास हो गया है कि इसमें थोड़ी बहुत तब्दीलियाँ करने, पैबन्द लगानेसे काम नहीं चलेगा। आज समयकी सबसे बड़ी माँग है ― क्रान्ति, एक व्यापक क्रान्ति। क्रान्ति शब्दसे आप नाराज होंगे। पर मैं जिस क्रान्तिकी बात करता हूँ वह खून-खराबीवाली क्रान्ति नहीं है, वह विचार-जगत्की क्रान्ति है, जो देशके उच्चतर उद्देश्योंकी दृष्टिसे हमें जीवनके माप दण्डोंमें आमूल-चूल परिवर्तन करनेको विवश कर दे। मैं आपको बिना किसी लाग-लपेटके बतला देना चाहता हूँ कि सिविल सर्विस के ऊँचे-ऊँचे अफसरों के वेतनोंमें दिन-दिन जैसी वृद्धि होती जा रही है उसे देखकर मुझे बड़ा डर लगने लगा है, और उम्मीद है कि आपको भी डर ही लगता होगा। शासन करनेवाले जिस ढंगका जीवन जी रहे हैं उसमें और उनके पैरों तले कराहनेवाले करोड़ों शासितों या प्रजाके जीवनमें कहीं भी कोई सम्बन्ध दीखता है? गरीब जनताके नंगे और छिले-झुलसे हुए से बदन मेरे इस कथनकी सचाईका प्रमाण हैं। अब आप लोग शासक वर्ग में आ गये हैं। लोगोंको अपने बारे में तो यह कहने का मौका न दीजिए कि आपके जूतोंके नीचे भी आपसे पहलेके शासकों या सहयोगियोंके मुकाबले जनता किसी कदर कम नहीं कुचली जा रही है। क्या जरूरी है कि आप भी शिमलासे ही शासन चलायें? क्या यह भी जरूरी है कि आप भी उसी नीतिपर चलें जिसकी आप अभी एक वर्ष पहले सख्त आलोचना किया