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जायेगा। अगर सरकार में ईमानदारी होती तो अली बन्धुओंपर मुकदमा न चलानेका फैसला करते ही दूसरे सब कैदियोंको भी वह छोड़ देती। अगर सरकार ईमानदार होती तो पंडित मोतीलाल नेहरू जैसे प्रमुख अपराधीको आजाद छोड़कर जवानोंको जेलमें बन्द न करती। अगर सरकार ईमानदार होती तो वह नकली अमन सभाओं (लीग्ज़ ऑफ़ पीस) को बढ़ावा न देती। अगर सरकार ईमानदार होती तो जिस तरह अमृतसर, कसूर, वीरमगांव, अहमदाबाद और अभी हालमें मालेगांवमें अपने लोगों द्वारा किये गये गुनाहके लिए हमने पश्चात्ताप किया, उसी तरह वह भी बहुत पहले ही अपने नृशंस और घृणित कृत्योंपर पश्चात्ताप करती। इस सरकार के बारेमें मुझे किसी भी तरहकी झूठी आशा या भ्रान्ति नहीं है। सरकार चाहे तो कल अली बन्धुओंको गिरफ्तार कर ले; मैं तो फिर भी उनकी सफाईको वाजिब ही मानता रहूँगा। उन्होंने ईमानदारीका बरताव किया है और हम सबको भी वैसा ही करना चाहिए। सच तो यह है कि सरकार जो लोगोंको अराजभक्ति के लिए गिरफ्तार कर रही है, वह अली बन्धुओंको ही गिरफ्तार करने जैसा है।

पत्र-लेखक महोदय के इस कथनके बारेमें भी कि जेलमें बन्द असह्योगी बाहर रहनेवाले असहयोगियोंसे कम भाग्यवान हैं मुझे यही कहना पड़ेगा कि असहयोग के बारेमें उनकी समझ सही नहीं है। अगर मैं असहयोगके नियमोंको किसी तरह भंग न करूँ और निजी या सार्वजनिक नैतिक मूल्योंको भी भंग न करूँ और फिर भी काल-कोठरीमें बन्द कर दिया जाऊँ, तो इस सजाको मैं आजादी मानूंगा। जैसे गुलाम के लिए उसके मालिकका घर कैदखाना है, उसी तरह मेरी नजरोंमें तो सारा भारत एक कैदखाना है। गुलाम अगर आजाद होना चाहता है तो उसे अपनी गुलामी के खिलाफ बराबर बगावत करते रहना पड़ेगा और बागी होने के कारण मालिककी काल कोठरीमें बन्द भी रहना पड़ेगा। काल कोठरीका दरवाजा तो आजादीका राजद्वार है। जो लोग सरकारकी जेलोंमें तकलीफें उठा रहे हैं, उनपर मुझे तरस नहीं आता। अन्यायी सरकारके राज्यमें निर्दोष लोगोंको तो बराबर सूलीपर ही सुख मानना चाहिए। मेरी सलाह माननेसे इनकार करके जेलमें अपने साथियोंके बीच जा बैठना तो अली बन्धुओंके लिए सबसे आसान काम था। यहाँ मैं पाठकोंको यह भी बता दूँ कि दक्षिण आफ्रिकाकी लड़ाईके आखिरी दौर में जब मैं पकड़ा गय[१]ा तो मेरी पत्नी और दूसरे सभी दोस्तोंने छुटकारेकी साँस ली। दक्षिण आफ्रिकाकी जेलोंमें ही मुझे लड़ाई और आन्दोलनसे फुर्सत मिल पाती थी।

अब यह बात साफ हो गई होगी कि असहयोग में पकड़े जानेवालों को जेलसे छुटकारा पानेके लिए बयान क्यों नहीं देना चाहिए।

अराजभक्ति एक सद्गुण

वर्तमान शासन-प्रणालीकी बेईमानीकी दो बहुत बढ़िया मिसालें मेरे सामने हैं। गुजरात विद्यापीठके उपकुलपति प्रोफेसर गिडवानीने दो महीने पहले बेजवाड़ामें एक

  1. यह बात नवम्बर १९१३ की है; देखिए खण्ड १२।