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असमका सबक


छोड़कर जानेकी हिम्मत नहीं हुई। यहींसे मैंने उन सभीको तार और पत्र भेजे, जिन्हें भेजनेकी मैंने जरूरत समझी। हाथमें लिया हुआ काम चाहे कितना भी छोटा क्यों न हो, उसे छोड़कर दूसरे किसी भी कामके लिए, चाहे वह बहुत बड़ा ही क्यों न हो, जाना किसी भी आदमीके लिए उचित नहीं है; हाँ, कोई साफ रास्ता निकल आये तो बात दूसरी है। मेरे सामने ऐसा कोई रास्ता नहीं था, इसलिए मैं हाथमें लिये हुए कामको छोड़कर वहाँ नहीं जा सका। अगर यह मेरी गलती थी तो भगवान् और बेजबान मजदूर भाई मुझे माफ कर दें। मैं तो ऐसा ही समझता हूँ कि बेजवाड़ा- कार्यक्रमको पूरा करनेमें लगे रहकर मैं मजदूरोंकी पूरी सेवा कर रहा हूँ। मुझे अपनी मजबूरीका अफसोस इसलिए और भी ज्यादा है कि मजदूरोंका, किसी भी वजहसे हो, ऐसा खयाल बन गया है कि उनकी विपत्तिके समय जब और जहाँ उन्हें मेरी जरूरत होगी मैं उनके पास पहुँच जाऊँगा। मैं नम्रतापूर्वक अपनी सीमाएँ स्वीकार करता हूँ। मैं जानता हूँ कि बहुतसे मामलोंमें तो मैं अपनी हार्दिक सहानुभूति और प्रार्थनाओंके अतिरिक्त उन्हें कुछ भी नहीं दे सकता। जी तो बहुत चाहता है, लेकिन शरीर साथ नहीं दे पाता। मैं सुनता हूँ, मैं महसूस करता हूँ और मदद न कर पानेकी अपनी मजबूरीपर तड़पकर रह जाता हूँ।

मगर आदमी जितना असमर्थ है, भगवान् उतना ही समर्थ है। उसकी कृपा अपरम्पार है और वह हजार हाथोंसे मदद करता है। एन्ड्रयूज और दास साहब-जैसे सज्जनोंको जरूरतके समय वह न जाने कहाँसे भेज ही देता है। मैं इस विश्वाससे सन्तोष प्राप्त करता हूँ कि भगवान् किसी भी दुःखको अनसुना नहीं करता, दुःखी-दर्दीकी कातर पुकार सुनकर कुछ-न-कुछ मदद कर ही देता है। ऐसी हालतमें हमारे लिए उसने जो काम निर्धारित कर दिया है उसे विनम्र श्रद्धा और पूरी सतर्कतासे करते जाना ही उचित है, क्योंकि इसके सिवा हम और कुछ कर भी नहीं सकते।

असमकी दुःखद घटनाओंने भी एन्ड्रयूजको भारतीय सरकारपर संगीन आरोप लगानेका मौका दिया है। थोड़ी देरके लिए मान भी लिया जाये कि वे गलतीपर थे, फिर भी मजदूरोंकी तात्कालिक आवश्यकताओंके प्रति, तटस्थताके नामपर, जो क्रूरतापूर्ण उपेक्षा बरती गई और बिलकुल निहत्थे लोगोंपर हथियारबन्द गोरखे छोड़कर उसे जिस घिसे-पिटे तरीकेसे वाजिब ठहरानेकी कोशिश की गई, उस सबसे तो इस सरकारकी बर्बरता ही जाहिर होती है और यह किसी भी इज्जतके काबिल नहीं रह जाती। कुलियोंपर गोरखे छोड़े ही क्यों गये? फौजमें कुछ लोगोंको सिर्फ उजड्डुता और क्रूरता ही सिखाई जाती है, इसे कौन नहीं जानता? निहत्थे नागरिकोंके बीच फौज उतारने का मतलब जनता समझती है। सभी जानते हैं कि फौजमें भरती होनेवालों में मानव समाजका घटियासे घटिया अंश भी होता है। लड़ाईके लिए ऐसे लोग अच्छे हो सकते हैं, मगर हड़ताली कुलियोंके खिलाफ उनका इस्तेमाल करना तो साफ तौरपर मालदारों और ताकतवरोंकी मदद करना है। हर महत्त्वपूर्ण मामले में, सुधारोंकी योजना विफल हो रही है। अब तो कोई शक ही नहीं रह गया है कि अगले कुछ महीनोंमें या तो सरकारके तन्त्रमें इतना परिवर्तन हो जायेगा जिसकी