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हमारी खामियाँ


देनेसे १३५ रुपयेकी आमदनी ठहरती है और उससे पाँच आदमियोंके एक परिवारकी आसानीसे गुजर-बसर हो सकती है। उनसे मेरा कहना है कि सवा दो रुपये प्रति महीने में एक आदमीका खाना-कपड़ा और मकान नहीं चल सकता, गरीब से गरीबका भी नहीं। और चूँकि इस औसत आमदनीमें लाखों करोड़पतियोंकी आमदनी भी लेखी गई है, इसलिए गरीब जनताकी वास्तविक आय और भी कम बैठती है। इसलिए गरीबोंकी औसत आमदनी हमारे देशकी गरीबी ही नहीं बल्कि लगभग भुखमरीकी दशाका एक अकाट्य प्रमाण है।

डा० पॉलेनने शराबकी चुंगीसे होनेवाली राजस्वकी दिन-दिन बढ़ती आमदनीका स्पष्ट प्रमाण होते हुए भी यह कहनेकी धृष्टता की है कि वर्तमान सरकार बहुत ज्यादा शराबखोरीको बढ़ावा नहीं देती।

और अन्तमें, डा० पॉलेन सरकारकी दमन और आतंक-नीतिसे इनकार करना तो दूर, उलटे यह दावा करते हैं कि ‘वे लोग (हम लोग) उतने ही स्वतन्त्र हैं जितने कि स्काट और वेल्स और डोमीनियनोंकी जनता, यहाँतक कि स्वयं अंग्रेज लोग हैं’। इस घोर अज्ञानको केवल असहयोग आन्दोलन ही दूर कर सकता है।

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, २२-६-१९२१

१२२. हमारी खामियाँ

अज्ञान और दम्भपूर्ण धारणाओंके कारण डा० पॉलेनकी आलोचना मनमें सद्भावनाके बजाय केवल क्षोभ उत्पन्न करती है, इसके विपरीत मद्रासके एक अंग्रेजने, ‘जॉन बुल’ नामसे नीचे लिखी बड़ी ही सहायक और खरी आलोचना भेजी है:

मैं एक अंग्रेज हूँ और आपके कार्य और जीवनके बारेमें प्रशंसा के कुछ शब्द और अपनी सफाई में कुछ शब्द प्रस्तुत करना चाहता हूँ। ऐसा करनेकी प्रेरणा मुझे लॉर्ड रीडिंगके भाषणके बारेमें ‘यंग इंडिया’ में आपकी टिप्पणी[१] पढ़ने से मिली। मुझे ऐसा लगता है कि सीधे-सादे सत्यको देखकर उसे कह सकनेकी अमूल्य क्षमता आजके अन्य किसी भी राजनीतिज्ञकी अपेक्षा आपमें कहीं अधिक है। आपकी निगाहमें भारतके विक्षोभकी जड़ यह है कि भारत में यूरोपके लोग भारतीयोंको अपनेसे तुच्छ मानते हैं। मेरा भी यही खयाल है। लेकिन मैं चाहता हूँ कि आप दो बातोंपर विचार करें पहली, “इसमें कसूर किसका है?” और दूसरी, “इसमें सुधार कैसे किया जाये?”
क्या भारतस्थित अंग्रेजके लिए यह सम्भव है कि वह भारतीय जन-साधारणको अपनी जातिसे तुच्छ समझनसे बच सके? हममें से जो लोग वस्तुस्थिति को यथार्थ रूप में देखना चाहते हैं वे क्या देखते हैं? हम देखते हैं कि नौकर
  1. देखिए “वाइसरायका भाषण”, ८-६-१९२१।