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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

निश्चित करनेका यह अच्छा अवसर है। इसके बाद शुभ अवसरोंपर विदेशी मलमल नहीं बल्कि पवित्र खादी हमारे शरीरोंको सुशोभित करेगी। यह खादी लाखों भारतीयोंके किसी कठिन परिश्रम या जबरन लादी गई निष्क्रियता तथा अकिंचनताका प्रतीक न होकर घरेलू जीवनको पुनरुज्जीवित करनेवाली कविता तथा गरीबसे-गरीब मेहनतकशकी भावी समृद्धिका प्रतीक है। और यदि बारह मास पूर्व स्वर्गवासी महान् देशबन्धु [लोकमान्य तिलक] की पवित्र अस्थियाँ जहाँ जलाई गई थीं वहाँपर किये गये कलके पवित्र समारोह तथा आजके प्रदर्शनका यही आशय है तो हमें अपने प्रस्तावसे पीछे नहीं हटना चाहिए, न इसके लिए कोई बहाना ही बनाना चाहिए। हमें बिना कोई प्रदर्शन किये सदैव के लिए विदेशी वस्त्रोंका उपयोग छोड़ देना चाहिए। हमें यह समझ लेना चाहिए कि जिस प्रकार उस मक्खन मलाईवाले दूधका जिसके बारेमें यह मालूम हो जाये कि वह दूषित है, कोई मूल्य नहीं होता उसी प्रकार हमारे पास जो विदेशी वस्त्र हैं, उनका कोई मूल्य नहीं। उन्हें फेंक देनेके सिवा और कोई चारा नहीं। यदि हमें अब विदेशी वस्त्र नहीं पहनने हैं, तो उन्हें अपने ट्रंकमें ताला लगाकर बन्द कर रखना क्या एक निरर्थक बड़ा बोझ ही नहीं है? क्या यूरोपमें लोग उन मूल्यवान वस्तुओंको छोड़ नहीं देते जिनका चलन बन्द हो गया है? मैं इस प्रारम्भिक अवस्थामें सावधानीके ये शब्द इसलिए कहता हूँ, क्योंकि मैं जानता हूँ बहुतसे लोगोंने अपने विदेशी वस्त्रोंका केवल एक भाग ही दिया है और शेष स्पष्टतः इस आशासे अपने पास रख लिये हैं कि शायद समय आनेपर वे उन्हें पहन सकें। विदेशी वस्त्रोंका संग्रह, द्रव्य या गहनोंका संग्रह नहीं है जिसमें से केवल अंशमात्र देनेसे काम चल सकता है। विदेशी वस्त्रोंका संग्रह तो उस कूड़े-करकटके ढेरके समान है जिसके एक-एक कणको मेहनती तथा कुशल गृहिणी घूरेपर फेंक देती है। यदि हमारे बाजारोंमें विदेशी वस्त्रोंकी दुकानें रह भी जायें तो उधर आकर्षित न होनेका दारमदार हमारी तड़क-भड़क और चमक-दमककी ओर जानेवाली रुचिमें क्रान्तिकारी परिवर्तन करनेकी योग्यतापर निर्भर करेगा। हमें नकलके पीछे दीवाना नहीं बनना चाहिए। यदि हम ऐसा करते हैं तो सम्भव है कि धोखाधड़ीसे विदेशी बाजारोंसे हमारे यहाँ नकली खादी आने लगे। फिलहाल संक्राति कालमें हमारे लिए मोटी झोटी बिना धुली खादी ही सर्वोत्तम है।

मैं खादीकी प्रतिज्ञा इसलिए करता हूँ कि यह हमें अपनी सभी शक्तियोंका उपयोग करनेका अवसर देती है और लाखों स्त्री-पुरुषोंमें से प्रत्येककी, चाहे वह बूढ़ा हो या जवान, परीक्षा लेती है। इसमें सफलताकी आशा केवल तभी की जा सकती है जब कि भारत एक मत होकर कार्य करे। यदि भारत इसे स्वदेशीके सम्बन्धमें चरितार्थ कर सकता है तो समझ लेना चाहिए कि उसे स्वराज्यका रहस्य मालूम हो गया है। तब वह वैज्ञानिक ढंगसे विनाश और निर्माणकी कलामें प्रवीण हो जायेगा।

कल जिस स्थानपर[१] हमने अपने पापोंके एक अंशको जलाया वह हमारे लिए तीर्थस्थान बन गया है। मुझे आशा है कि श्री सोबानी जिन्होंने इस आन्दोलनमें पहले

  1. देखिए "भाषण : बम्बईमें स्वदेशीपर", ३१-७-१९२१।