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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

वस्त्र अधिक प्रिय हैं? हमें स्वदेशीकी स्वराज्य दिलानेकी शक्तिके विषयमें सन्देह भले ही हो फिर भी स्वदेशीके पालनके सम्बन्धमें तो कतई कोई शंका नहीं हो सकती।

इस दृष्टिसे विचार करते हुए हमारा काम बहुत आसान है। पैसा देनेमें हमें संकोच होता था, वकालत छोड़ते समय आजीविकाका प्रश्न उठ खड़ा होता था, सरकारी स्कूलोंको छोड़नेसे शिक्षाके पिछड़ जानेका भय था, लेकिन विदेशी कपड़ेके त्यागमें क्या भय हो सकता है? इससे नुकसान तो हो ही नहीं सकता। जिसका उपयोग नहीं उसे किसलिए इकट्ठा करें? रोग मुक्त होनेपर दवाईकी बोतल चाहे कितनी ही महँगी क्यों न खरीदी हो, फेंक दी जाती है। मोह मिटनेपर बड़ेसे-बड़े शृंगारको भी हम पल-भरमें तज देते हैं। विदेशी कपड़ेका मोह क्या इतना ज्यादा है कि हम उसे छोड़ ही नहीं सकते? मैं आशा करता हूँ कि विदेशी कपड़ेको खरीदनेमें खर्च किये गये पैसोंका विचार कोई नहीं करेगा। उसकी कीमतका विचार करेंगें तो हम कंजूसीका पाप करेंगे। कंजूस माँ बालकसे बर्तनमें बची खुराकको खा जानेका आग्रह करके उसे बीमार कर देती है। असली किफायत खुराकको फेंक देनेमें ही है। उसी तरह असली किफायत विदेशी कपड़ेको त्याग देनेमें ही है।

विदेशी कपड़ा त्यागते ही झूठी शान खत्म हो जाती है और सादगी आ जाती है। खादीके कपड़े टिकाऊ होनेके कारण बहुत दिन चलते हैं। जिसका हर महीने सौ रुपया खर्च होता था उसका अब पूरे सालमें इतना खर्च नहीं होता। तब उनके लिए अपनी हजारोंकी पोशाक फेंक देनेमें कोई तकलीफकी बात नहीं है। विदेशी कपड़ेका आज ही त्याग करके हम देशका करोड़ों रुपया बचा सकते हैं; अतः लाखों अथवा करोड़ों रुपयोंके कपड़ेको फेंक देना दूरन्देशीकी निशानी है।

स्वदेशी हमारी अन्तिम मंजिल है। उसमें अगर हम हार गये तो हमें इस वर्ष स्वराज्य प्राप्त करनेकी उम्मीद छोड़ देनी होगी। इसलिए मुझे आशा है कि अब स्वदेशीके कार्यको तुरन्त हाथमें लेकर अपने कर्त्तव्यको पूरा करेगा।

यद्यपि विदेशी कपड़ेका त्याग करनेका सबका कर्त्तव्य एक समान है तो भी कपड़ा तैयार करनेमें गुजरात सबसे आगे जा सकता है। प्रत्येक स्कूल और घर अगर कातने-बुननेके काममें जुट जायें तो हमें कपड़ेकी कभी तंगी नहीं होगी। गुजरात खादीमय नहीं बनता तो हम जीती हुई बाजी हार जायेंगे।

आइये, हम स्वदेशीका मतलब समझ लें। उससे हम विदेशोंको जानेवाली साठ करोड़ रुपयेकी राशिको बचाना चाहते हैं। इतना ही नहीं बल्कि करोड़ों स्त्री-पुरुषों द्वारा उतने रुपयेका कपड़ा तैयार करवाकर हम उनके घरोंमें करोड़ों रुपया भरना चाहते हैं। ऐसा करके हम हिन्दुस्तानसे भुखमरीका बहिष्कार करना चाहते हैं। इसीसे विदेशी कपड़ेके पूर्ण बहिष्कारको मैं भुखमरीका बहिष्कार मानता हूँ। इसके अतिरिक्त हमारे यहाँ सदाव्रतकी प्रथा बढ़ती जा रही है। लाखों व्यक्ति आलसी बनकर केवल भिक्षापर रहकर भगवेको लजाते हैं। समर्थ व्यक्ति अगर काम नहीं करता तो उसे खानेका भी अधिकार नहीं है। आज हमारे पास ऐसा कोई काम नहीं है जो प्रत्येक भिक्षुकको सौंपा जा सके। जब देशमें चरखे और करघेकी प्रतिष्ठा हो जायेगी तब केवल प्रजाको ज्ञान देनेवाले ब्राह्मण और फकीर ही भीख माँगेगे। प्रत्येक असमर्थ