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ऐश-आरामसे जिन्दगी बसर कर सकते हैं। इससे समस्या हल हो सकती है, फिर भी कोई सिरफिरा ही होगा जो ऐसा सुझाव पेश करेगा। लोगोंको गोली मार देनेके बजाय उनकी जमीनोंसे उनको जबरन बेदखल कर देना भी लगभग वैसा ही काम है,क्योंकि इन बेशकीमत जमीनोंके साथ उनकी भावनायें, उनके कोमलतम उद्गार और उनकी कल्पना अर्थात् वे सभी बातें जो जीवनको जीने योग्य बनाती हैं, जुड़ी हुई हैं। एक बड़े घरानेकी विरासत पानेवाले टाटाओंसे मुझे यही कहना है कि वे अपने कमजोर और असहाय देशवासियोंकी इच्छाओंको सिर-माथे लेकर ही भारतके वास्तविक कल्याणमें अभिवृद्धि कर सकते हैं। सत्याग्रहियोंका कर्त्तव्य तो सोनेके अक्षरोंमें लिखा हुआ होता है। सत्याग्रह किसी भी अन्यायपूर्ण उद्देश्यके लिए नहीं किया जा सकता।न्यायपूर्ण उद्देश्यके लिए किया जानेवाला सत्याग्रह भी, यदि उसे लेकर चलनेवाले लोग कृत-संकल्प न हों और कष्टसहन करते हुए आखिरी दमतक लड़नेके लिए तैयार न हों, तो एक दम्भ ही है । हिंसाका किंचित्प्र योग भी न्यायपूर्ण उद्देश्यको विफल बना देता है । मन, वचन या कर्म--किसी भी रूपमें हिंसाका प्रयोग सत्याग्रहसे मेल नहीं खाता यदि उद्देश्य न्यायपूर्ण हो, कष्टसहनकी अपरिमित क्षमता हो और हिसासे बचा जाये तो विजय निश्चित है।

अस्पृश्यताका क्रमशः लोप

गुजरातके दौरेमें मुझे जो-जो सुखद अनुभव हुए उनमें सबसे ज्यादा सुखद था हिन्दुओं द्वारा दलित-वर्गके लोगोंका स्वागत । सभी स्थानोंपर श्रोताओंने इस विषयसे सम्बन्धित मेरी उक्तियोंको बिना किसी नाराजगीके सुना। कलोल में मुझे 'अछूतों' की एक सभामें भाषण देना था। मैंने महाजनोंसे अनुरोध किया कि आम सभाके लिए बनाये गये पण्डालमें ही उनके सामने भाषण करने दिया जाये। वे थोड़ी-बहुत हिचकिचाहटके साथ सहमत हो गये । मुझे उन 'बहिष्कृत' लोगोंको उनके मकानोंसे लेने जाना था। उनके मकान पण्डालसे इतनी दूरीपर थे कि वे आ नहीं सकते थे। इसीलिए मैंने अस्पतालके निकट ही उनके समक्ष भाषण किया। मुझे यह देखकर बड़ी खुशी हुई कि मेरे साथ जानेवाले कई सनातनी हिन्दू मेरे चारों ओर जमा होने वाले अछूत स्त्री-पुरुषोंके साथ बिना-किसी हिचकके मिलजुल रहे थे । पर मुझे सबसे ज्यादा सन्तोष तो नवसारीके पासके एक बड़े गाँव सीसोदरामें हुआ। वहाँ मेरे भाषण- के दौरान सभा-स्थलपर बड़ी दूरपर खड़े कई ढेढ़ोंको गाँव के बड़े-बड़े लोगोंके लिए सुरक्षित स्थानपर जान-बूझकर बैठा दिया गया था। और उनको वहाँ बैठानेपर किसी भी स्त्री-पुरुषने कोई आपत्ति नहीं की। गाँवके लगभग सभी लोग सभामें मौजूद थे। आसपासके गाँवोंके लोग भी वहाँ आ गये थे। इस प्रकार अछूत-वर्गके कई सौ लोगों को सोच-समझकर, एक पवित्र भावनाके साथ विशाल सभाके बीचों-बीच इतने महत्त्वपूर्ण स्थानपर बैठाना निश्चय ही इस आन्दोलनकी धार्मिकताका लक्षण है। श्री वल्लभभाई पटेलने' इस बातको भी पक्का बनाने के लिए श्रोताओंसे कहा कि जो लोग उन कार्यों--

१. (१८७५-१९५०); उस समय गुजरातके एक प्रमुख कांग्रेसी नेता। बादमें स्वतन्त्र भारतके प्रथम उप-प्रधान मंत्री ।