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टिप्पणियाँ

घरमें दे ताकि मैं उन लोगोंके दुःखोंका पूरा-पूरा अनुभव प्राप्त करूँ और उन्हें कम करनेके लिए भारी तपस्या करूँ। मैं मानता हूँ कि वैष्णवके रूपमें मैंने जो दया-धर्म सीखा है, जिसका मैंने तुलसी 'रामायण' में से पान किया है, वह दया-धर्म मुझे यही प्रार्थना सिखाता है । अन्त्यजोंपर हिन्दू धर्मके नामपर होनेवाला अत्याचार मुझे असह्य है, प्रत्येक हिन्दूके लिए वह असह्य होना चाहिए ।

[ गुजरातीसे ]

नवजीवन, १-५-१९२१

२८. टिप्पणियाँ

एक व्याघात

यदि अखबारोंमें छपी खबरें तत्त्वत: सही हों तो मालेगाँवके असहयोगी अपने सिद्धान्त, अपने विश्वास और अपने देशके प्रति सच्चे नहीं उतरे। उन्होंने प्रगति रूपी घड़ीकी सुइयाँ पीछेकी ओर घुमा दीं । अहिंसा वह आधारशिला है जिसपर असहयोगका पूरा ढाँचा खड़ा किया गया है। अहिंसाके अभावमें हर कुर्बानी बेकार जाती है; जैसे कि कागजके फूल देखने-भरके ही हुआ करते हैं। अगर अखबारों में छपी खबर सच है तो जो लोग स्पष्ट ही अपना कर्त्तव्य पालन कर रहे थे, इरादतन उनकी हत्या की गई है। यह हमला कायरतापूर्ण था । कुछ लोगोंने जान-बूझकर कानून तोड़ा । परिणाम दण्डके सिवा होता ही क्या ।

इस प्रकार जेलकी सजाके प्रति नाराजी प्रकट करना किसी भी तरह उचित नहीं ठहराया जा सकता । जो लोग मालेगाँवकी तरह हिंसात्मक कार्य करते हैं, वे सरकारके वास्तविक सहयोगी हैं। यदि सरकार इस प्रकार असहयोग आन्दोलनको कुचल सके तो वह बड़ी खुशीसे अपने कुछ अफसरोंको बलि हो जाने देगी। यदि ऐसी ही कुछ-एक हत्याएँ और हुईं तो हम जन-साधारणकी सहानुभूति खो बैठेंगे। मुझे पूरा यकीन है कि जनता हमारी ओरसे की गई हिंसाको बरदाश्त नहीं करेगी। जनता स्वभावसे शान्तिप्रिय है और उसने असहयोगका स्वागत इसी कारण किया है कि इसे समझ-बूझकर अहिंसात्मक रखा गया है।

तब हमें क्या करना चाहिए? हमें सार्वजनिक रूपसे और आपसी बातचीतमें भी हिंसाका सतत विरोध करते रहना चाहिए। बुराई करनेवालोंके प्रति हमें जरा भी हमदर्दी नहीं दिखानी चाहिए। जिन लोगोंने इन हत्याओंमें हिस्सा लिया है उनसे हमें यही कहना चाहिए कि यदि उनके मनमें जरा-सा भी पछतावा हुआ हो तो वे आत्म-समर्पण

१.अप्रैल १९२१ में खिलाफत आन्दोलनके कार्यकर्त्ताओंपर चलनेवाले मुकदमेसे उत्तेजित होकर जन-समुदायने हिंसापूर्ण कार्रवाई कर डाली थी। जिसके फलस्वरूप एक पुलिस सब-इन्स्पेक्टर और चार सिपाही मारे गये थे ।