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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

खिलाफतका पक्ष लेनेका मतलब है एक पवित्र और शुद्ध विचारका पक्ष लेना। पोपवाद के समर्थन में इक्के-दुक्के पोपोंके आचरण के पक्ष में कुछ कहना आवश्यक नहीं है। तुर्कोंके कुशासनका आप हर तरहसे विरोध कीजिए, लेकिन तुर्कोंके कुशासनकी आड़ लेकर यूरोपसे तुर्कों और उनके साथ-साथ इस्लामको भी मिटा देनेकी कोशिश करना तो दुष्टता है।

जो बात इससे भी बुरी है वह यह कि धुरी राष्ट्रोंकी पराजयका उपयोग इस्लाम को कुचलने के लिए किया जाये। यह महायुद्ध, जिसमें शामिल होनेके लिए भारतके मुसलमानोंको भी आमंत्रित किया गया था, क्या इस्लाम के खिलाफ कोई धर्म-युद्ध था ? जो ऐसा कहते हैं कि मुसलमान चाहे जिसे भी अपना धार्मिक प्रधान चुन सकते हैं, किन्तु तुर्कोंके विनमें उन्हें कोई दस्तंदाजी नहीं करनी चाहिए, वे लोग खिलाफतका अर्थ नहीं जानते। खिलाफतको तो बराबर पैगम्बर मुहम्मदके धर्मका रक्षक बनकर रहना है; इसलिए जिस क्षण सम्बन्धित व्यक्तिको सारी दुनियाके खिलाफ इस्लामकी रक्षा करनेकी शक्ति से वंचित कर दिया जाता है या वह उसकी रक्षा करनेकी शक्ति खो देता है, उसी क्षण वह खलीफा होने या बने रहने के अयोग्य हो जाता है। सैद्धान्तिक तौरपर कोई भले ही खिलाफतकी मान्यताकी नैतिकतामें शंका कर सकता हो, लेकिन इंग्लैंड इस्लाम के खिलाफ इस कारण नहीं पड़ा हुआ है कि वह अनैतिक है। उस हालत में तो इंग्लैंडको उन करोड़ों आदमियोंसे अपना सम्बन्ध तोड़ना पड़ेगा जिनके धर्म में [ इंग्लैंड की कल्पनाकी ] नैतिकताके लिए स्थान नहीं है।

असली सवाल तो यह है कि अगर कोई धर्म राजनीतिक शक्ति प्राप्त करके अपनी रक्षा करने की कोशिश करे तो उसमें क्या कोई अनैतिकता है ? व्यवहारतः ईसाई धर्मकी रक्षा भी क्या राजनीतिक शक्तिके बलपर ही नहीं होती रही है ?और हिन्दू धर्म की भी बात लें तो क्या राजपूत राजे उसके रक्षकका काम नहीं करते रहे हैं ?

जो ईसाई अपने दिलसे वैसा ही मानते हों, जैसा मेरा यह मित्र मानता है, उनसे मैं यही निवेदन करूँगा कि वे एक विचारगत आदर्श के रूपमें खिलाफतकी रक्षाके प्रयत्न में शामिल हों और इस तरह यह स्वीकार करें कि असहयोग आन्दोलन अधर्म के खिलाफ धर्मकी लड़ाई है।

जहाँतक मेरा सम्बन्ध है, इस मामलेमें मेरा मन बिलकुल साफ है। मेरा लक्ष्य न्यायसम्मत है। मैं किसी फरेब या अन्यायको शह देनेके लिए नहीं लड़ रहा हूँ। मेरा साधन भी उतना ही न्यायसम्मत है। यह लड़ाई सिर्फ सत्य और अहिंसा, इन दो हथियारोंसे ही लड़नी है। स्वेच्छासे कष्ट सहना अपने लक्ष्यके प्रति उत्कटताकी सबसे सच्ची कसोटी है।

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, ८-९-१९२१