पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 21.pdf/१०८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
७८
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

विश्वास है कि यदि पहली समस्या सुलझ गई तो दूसरी अपने-आप सुलझ जायेगी। मेरा यह कथन किसी सौदेबाजी के भावसे प्रेरित नहीं है। यदि हम अपने मुसलमान भाइयोंको जो सहायता अर्पित करना चाहते हैं वह हार्दिक है और स्वेच्छाप्रेरित है, यदि हम उनके मजहबकी हिफाजतकी खातिर दरअसल अपनी जानोंकी बाजी लगानेको तैयार हैं तो इसमें कोई शक नहीं कि लेन-देन के कानूनसे कोई उच्चतर कानून प्रवर्तत होने लगेगा और भारतमें गो-रक्षाकी समस्या सुलझे बिना न रहेगी।

अपना कथन समाप्त करने के पहले मैं आपका ध्यान एक और बातकी ओर दिलाना चाहता हूँ। मुझे मालूम हुआ है कि यहाँपर लगभग ५०० मुसलमान जुलाहा परिवार हैं। उनकी प्रवृत्ति अपना व्यवसाय छोड़नेकी हो रही है, क्योंकि दूसरे मुसलमान उनके प्रति हीनभाव रखते हैं। इस प्रवृत्तिकी रोकथाम करना अत्यन्त आवश्यक है। हम हिन्दुओं में कर्मपर आधारित सामाजिक भेदभाव मौजूद है, परन्तु जहाँतक मुझे मालूम है, इस्लाम ऐसे भेदको नहीं मानता। मुस्लिम समाज परिपूर्ण समानतापर आधारित है। इसलिए इन जुलाहोंका समाजमें अप्रतिष्ठित समझा जाना मुझे असंगत प्रतीत होता है। बुनकरका काम कोई ओछा काम नहीं है। मेरे विचारमें भारतकी बिलकुल अनिवार्य दो आवश्यकताएँ, जिनपर भारतका जीवन निर्भर हैं, कृषि तथा बुनाईका काम हैं। भारतके लिए उनका वही महत्त्व है जो जीवित व्यक्तिके लिए उसके दो फेफड़ोंका होता है। यदि इनमें से एक निकम्मा हो जाता है या उसमें कोई रोग लग जाता है अथवा कोई खराबी आ जाती है, तो दूसरा फेफड़ा कुछ समयतक तो काम अवश्य चला सकता है परन्तु अधिक समयतक नहीं। ठीक ऐसी ही अवस्था भारतकी है। जैसे-जैसे बुनाई उद्योग समाप्त होता गया वैसे-वैसे हमारा देश भी कमजोर होता गया। और हमने स्वदेशीका जो कार्यक्रम आरम्भ किया है वह बीमार फेफड़ेके उपचार जैसा है जिससे कि कमजोरी ठीक की जा सके और नए रक्तका संचार हो सके और वह फेफड़ा स्वस्थ एवं शक्तिशाली बने। ज्यों ही भारतके लिए कृषि तथा बुनाईकी नितान्त आवश्यकता हमारी समझमें आ जायेगी त्यों ही हम इन कामोंकी अवगणना या उनका तिरस्कार करना छोड़ देंगे और तभी हमारी समझमें आयेगा कि ये दोनों उद्योग हमारे सर्वोच्च आदरके पात्र हैं। हमें यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि बुनकरोंकी मददके बिना भारत में स्वदेशी के कार्यक्रमको सफलता नहीं मिल सकती। स्वदेशीसे मेरा तात्पर्य है कि प्रत्येक प्रान्त अपना कपड़ा स्वयं तैयार करे। यदि आप अपने कपड़ोंके लिए बम्बईपर निर्भर रहेंगे तो इसका मतलब यह होगा कि बिहारने स्वदेशीका अमल नहीं किया। इसलिए कांग्रेस कमेटीसे मेरी प्रार्थना है कि वह शीघ्रातिशीघ्र बिहारके प्रत्येक घरमें चरखा पहुँचा दे। इस कामके पूरा हो जानेपर हमारा प्रत्येक घर कताईका कारखाना बन जायेगा। यदि इस पैमानेपर सूत काता जाये तो हम प्रत्येक गलीको आसानीसे बुनाईके कारखाने का रूप देनेकी उम्मीद कर सकते हैं। यह प्रश्न सारे भारतके लिए बहुत जरूरी है, किन्तु बिहारके लिए तो विशेष रूपसे है, क्योंकि भारतके प्रान्तोंमें बिहार सबसे अधिक गरीब है। यहाँ मैं उड़ीसाको भी बिहारमें ही शामिल कर रहा हूँ। किन्तु यदि इन्हें अलग मानें तो [ गरीबीमें] उड़ीसाका स्थान सबसे निम्न स्तरपर होगा तथा बिहार प्रान्तका बस उसके