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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

है। इससे हमें जमीनपर बैठने में दिक्कत नहीं होती। इस देशके लिए मोजेसे गंदी चीज शायद दूसरी नहीं। गर्मीमें मोजे दो घंटे पहननेके बाद दुर्गंध देने लगते हैं। पैर नंगे रखे जाते हैं तो अधिक अच्छे रहते हैं और उनको ढकनेमें कोई सुन्दरता नहीं है। जिन अंगोंको देखनेसे अपनी वृत्तियाँ मलिन हो सकती है उनके सिवा बाकी अंगोंको ढकने में मर्यादाकी रक्षाका कोई सवाल नहीं उठता। इस देशमें बूट पहनना भी शरीरपर अत्याचार ही है। चप्पल अथवा स्लीपरसे हमारे पैरोंकी कीचड़से पूरी रक्षा हो जाती है। इसीलिए हमारे देश में तो जूतेका नाम पदत्राण है।

३. पारसियोंमें शराबखोरीकी लत कहाँसे आ गई, यह मैं नहीं जानता। महात्मा जरतुश्तने शराब पीनेकी अनुमति दी होगी, ऐसा में नहीं कह सकता। किन्तु जो बात बुद्धि-विरुद्ध हो वह शास्त्र के अनुकूल मानी जाती हो तो भी शास्त्रसम्मत नहीं हो सकती। जो अनीति सिखाये वह शास्त्रसम्मत नहीं हो सकता। उत्तरी ध्रुवमें शराबकी जरूरत हो सकती है, किन्तु समशीतोष्ण कटिबन्धमें शराब पीना महापाप ही है। इंग्लैंड में एक पारसी समारोहमें गया था। उसमें पहले सब बातें मर्यादित रूपमें चलीं : गाना-बजाना हुआ; फिर शराब के प्याले चले। मर्यादा टूटी, मुझे वहाँ बैठने में शर्म मालूम हुई और मैं वहाँसे भाग आया। मैंने इंग्लैंडमें हिन्दुओं और मुसलमानोंके समारोहोंमें ऐसा ही देखा है। जहाजोंमें मुसाफिर शराब पीकर मस्त हो जाते हैं और मर्यादासे बाहर व्यवहार करते हैं। इस बातको जहाजमें यात्रा करनेवाला कौन मुसाफिर नहीं जानता? सीमा के भीतर रहकर शराब पीनेवाले 'मॉडरेट ड्रिंकर' मैंने काफी देखे हैं। वे नालियोंमें नहीं लोटते, यह सच है, परन्तु ---?

इसलिए पारसी भाई-बहनोंको शराब बिलकुल छोड़ देनेकी प्रतिज्ञा अवश्य करनी चाहिए।

४. मैं तो मांसाहार करता नहीं। अज्ञानावस्थामें किया तो उसके लिए पछताता हूँ। मैंने उसका बहुत प्रायश्चित्त किया है। पति और पत्नी - दोनोंने मरणासन्न हालतमें और डॉक्टर के कहनेपर भी मांस खानेसे इनकार किया है। मांस भक्षण करके मैं एक पल भी जीवित नहीं रहना चाहता। मैंने मुसलमानोंसे बातचीत की है। उससे मुझे पता लगा है कि उनमें भी परहेजगार फकीर होते हैं जो अपने क्रोधपर और अपनी इन्द्रियोंपर काबू पानेके लिए मांस खाना छोड़ देते हैं। किन्तु मैं पारसी भाइयों और बहनोंसे निरामिष भोजी होनेके लिए नहीं कहता। उनके भोजनमें मांस और मुर्गेकी बहुलता रहती है ऐसा मैंने उनके निकट सम्पर्कसे जाना है। मैं अपने पारसी भाइयों और बहनोंसे अपनी स्वादेन्द्रियोंपर अंकुश रखने की दृष्टिसे यह निवेदन अवश्य करता हूँ कि वे मांस-मुर्गे का अति सेवन न करें। करोड़ों मुसलमान नित्य मांस नहीं खाते। इससे उनकी कोई हानि नहीं होती, ऐसी मेरी मान्यता है। मैंने पारसियोंसे विनोदमें “पा ऋषि"[१] कहा है। में अस्सी हजार लोगोंकी इस जाति से आत्मज्ञान और आत्मशक्तिकी बहुत अधिक आशा रखता हूँ। उनकी संख्या ज्यादा नहीं है इसलिए उनमें महत्वपूर्ण परिवर्तन जल्दी हो सकते हैं। इस परिवर्तनको

  1. अर्थात् “पाव ऋषि, एक चौथाई ऋषि।