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असमके अनुभव -- २

छेड़ते ही उन्होंने मुझसे कहा कि "हम लोगोंका हाल आपको मालूम नहीं होता। क्योंकि आपको तो जब चाहें तभी बैठनेको मोटर तैयार। एक प्याला माँगते ही दस प्याले बकरीका दूध हाजिर। खादी भी लोग आपको घर आ आ कर दे जाते हैं। लेकिन मुझ जैसे पैसेवाले आदमीको भी जब हर वक्त मोटरका और होटलोंका किराया देना पड़ता है और अपनी जरूरत-भरकी खादी के दाम चुकाने पड़ते हैं, तब तो जनताकी सेवा हमें अखरने लगती है और महँगी मालूम पड़ती है।" ये महाशय अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य हैं और देशकार्य में पैसा खर्चते हुए हिचकते भी नहीं; लेकिन मैं यह समझ सकता हूँ कि वे जब बम्बई जाते होंगे, बीस रुपये रोजसे कम खर्च न आता होगा। मुझे उनकी दलीलमें काफी सार मालूम होता है। लेकिन इस समय तो मैं निरुपाय हूँ। मैं कमजोर हो गया हूँ और यह भी जानता हूँ कि इससे मेरी सेवा करनेकी शक्ति घट गई है। इसीलिए अब सब लोगोंको पैदल सफर करनेकी सलाह देनेकी हिम्मत नहीं पड़ती। चूंकि मैं खुद कमजोर हूँ, इस कारण कई बार दूसरोंको भी कमजोर समझकर उनपर नाहक ही ममता कर बैठता हूँ। वरना जनताकी सेवा करनेवालोंको ज्यादा खर्च करने की जरूरत ही नहीं पड़ती। तीसरे दर्जेका किराया इतना नहीं होता कि भारी जान पड़े; अलबत्ता जहाँ दुकान करें वहाँ वाहन आदि पर खर्च न किया जाये। भोजन और पोशाक भी सादे ही रहें। किन्तु हमने खुद अपनेको इतना आरामतलब बना लिया है कि लाखों आदमी जो काम रोज करते हैं, उसके लिए हम अपनेको असमर्थ मानते हैं।

मुझे करना तो था नदीका वर्णन, और मैं लिख गया वह सब जो भीतर खटकता रहता है। खैर! नदी समुद्रकी तरह विशाल जान पड़ती है। बहुत दूरीपर दोनों तरफके किनारे दिखाई देते हैं। नदीका पाट लगभग दो मील या इससे भी कुछ अधिक होगा। १५ घंटे का सफर है। नदीकी भव्य शान्ति मनोहर प्रतीत होती है। बादलोंमें छिपा हुआ चन्द्रमा, पानीपर अपनी हल्की रोशनी बखेरे है। स्टीमर बढ़ रहा है और उसके पंखों से पानी काटने की मन्द ध्वनि कर्णगोचर हो रही है। इसे छोड़कर सर्वत्र शान्ति छाई हुई है। पर फिर भी मेरे मनको चैन कहाँ ? क्योंकि यह स्टीमर और यह महानद मेरे नहीं हैं। जिस सत्ताके अत्याचारने मेरी आँखें खोल दी हैं, जिसकी करतूतोंने देशको घायल, निस्तेज और भिखारी बना दिया है, उसी सत्ताकी मेहरबानीसे में नदीपर इस जहाज में बैठा हुआ यात्रा कर रहा हूँ -- इस सारी शान्तिके बीच यह विचार मुझे विकल बनाये हुए है। तथापि मैं सत्ताको दोष नहीं दे सकता। तीस करोड़ हिन्दुस्तानी यदि अपने कर्त्तव्यको न समझें तो इसके लिए मैं सत्ता को दोषी कैसे कहूँ ? सूदखोर मुझसे मनमाना वसूल करता है, इसके लिए उसे दोष दूँ या खुद अपनेको -- जो उसे उतना सूद देता है । व्यापारीका तो धन्धा ही व्यापार करना है। मैं उससे लेन-देनका व्यवहार रखूं या न रखूं यह तो मेरी मर्जी की बात है। मैं उससे सम्बन्ध ही क्यों जोडूं ? अगर मैं न चाहूँ तो विदेशी कपड़ा मेरे गले कौन मढ़ सकता है ? इसलिए यह समझकर कि व्यापारीकी पीठपर जिस सत्ताका हाथ है, उसे दोष देना मेरी कमजोरी है, मैं शान्त हो जाता हूँ, और इस खयालसे कि मुझे जनसाधारणमें ही काम करना है, अपने कर्त्तव्यपालनमें लग जाता हूँ ।