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धारण कर लिया था, उसके लिए उन्होंने सरकारकी ढिलाईको दोष दिया और इस बातपर भी उसकी लानत-मलामत की कि उसने असहयोग आन्दोलनके नेताओंको उस अंचल में जाकर शान्ति और साम्प्रदायिक मैत्रीभाव फैलाने में सहायक नहीं होने दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने देशको यह भी कहा कि सरकार मोपलोंपर जो अत्याचार कर रही है उसके विरुद्ध देशकी सहानुभूति मोपलोंके प्रति ही होनी चाहिए। गांधीजीकी तमाम कोशिशोंके बावजूद देशके एक छोटे से अंचलमें घटित इस दुर्घटनाकी प्रतिक्रिया एक लम्बे अरसे तक देशमें होती ही रही।

उसी समय अली-बन्धुओंकी गिरफ्तारीके कारण भी हिन्दू-मुस्लिम ऐक्यको बनाये रखने के प्रयत्न अपर्याप्त प्रतीत होते थे। साम्प्रदायिक एकताके विचारोंको मुस्लिम जनता तक समझाकर कहनेका काम मुख्यतया अली-बन्धु ही करते थे। जुलाईके महीनेमें उन्होंने अपने भाषणमें दो-चार ऐसी बातें कह दी जिनमें हिंसाको बढ़ानेकी प्रवृत्ति दिखाई देती थी--इन बातोंको लेकर देशके सार्वजनिक जीवनमें बहस छिड गई और इन भाषणोंके कारण वे पहले-जैसे मान्य और सर्वप्रिय नहीं रहे। कराचीके खिलाफत अधिवेशनके समय सैनिक सेवाओंसे सम्बन्धित प्रस्तावका समर्थन करने के अपराधमें उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और उनपर मुकदमा चलाया गया। गांधीजीने अलीबन्धुओंकी हिम्मतकी ताईद की और उनके खिलाफ कही जानेवाली बातोंका खण्डन करते हुए उनके व्यवहारको न्याय्य और उचित ठहराया। कराचीके अपने भाषणमें अली-बन्धुओंने जो कुछ कहा था, गांधीजीने अपने अनेक भाषणोंमें वही बात दोहराई तथा एक घोषणापत्र तैयार किया और उसपर अली-बन्धुओंकी बातके समर्थन में देशके प्रमुख नेताओंके दस्तखत लिये (पृष्ठ २४४-४५) । उन्होंने कांग्रेसकी कार्यकारिणी तकको इस बातपर राजी कर लिया कि वह कराचीके उक्त प्रस्तावका समर्थन करते हुए एक प्रस्ताव पास करे (पृष्ठ २८४-८५) । उन्होंने चुनौतीके स्वरमें “राजभक्तिको भ्रष्ट करनेका आरोप" शीर्षक एक लेख भी लिखा और उसमें उन्होंने कहा : “मैं निःसंकोच कहूँगा कि चाहे सैनिकके रूपमें हो या गैर-सैनिक अधिकारीके रूपमें, किसी भी हैसियतसे किसी भी व्यक्तिके लिए उस सरकारकी चाकरी करना पाप है जिसने भारतके मुसलमानों के साथ धोखेबाजी की है और जो पंजाबमें अमानवीय व्यवहार करने की अपराधिनी है। मैंने यह बात कई मंचोंसे सिपाहियोंकी उपस्थितिमें कही है" (पृष्ठ २३१) । मार्च १९२२को गांधीजीपर जो मुकदमा चलाया गया और जिसके बाद उन्हें सजा दी गई, उस मुकदमे के अनेक आधारोंमें यह लेख भी एक था।

हिन्दू-मुस्लिम ऐक्यको गांधीजी एक ऐसा कोमल पौधा मानते थे जिसकी सारसंभाल बड़ी ही सावधानीके साथ की जानी चाहिए। साथ ही वे खादीके व्यापक प्रचारको भी कम महत्त्व नहीं देते थे और मानते थे कि उसे सबके बीचमें प्रतिष्ठित और स्वीकृत कराने के लिए बड़े ही कठिन परिश्रमकी आवश्यकता है। देशमें विदेशी वस्त्रोंंकी होलियां जलाई जा रही थीं और अनेक लोगोंको लगता था कि यह उचित नहीं है। श्री सी० एफ० एन्ड्रयज-जैसे मित्र तक भ्रममें पड़ गये थे और उन्हें ऐसा आभास हुआ था कि यह विदेशी व्यक्तियोंके प्रति तर्कहीन घृणाकी अभिव्यक्ति है (पृष्ठ ४१)। इस प्रकारकी आलोचनाका जवाब देते हुए गांधीजीने कहा : “विदेशी