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सात

कपड़ोंकी यह होली स्वदेशी कपड़े की उत्पत्तिको उत्तेजन देनेका अधिकसे-अधिक गतिपूर्ण उपाय है। अपनी सारी शक्ति लगाकर एक प्रचण्ड प्रयत्नके द्वारा और इस आवश्यक विध्वंसात्मक कार्यको तेजीसे पूरा करके हमें हिन्दुस्तानको उसकी मोह-निद्रासे जगाना है, उसकी मजबूरीसे उत्पन्न सुस्तीको दूर करना है" (पृष्ठ ४४-४५) । एक अन्य सज्जनकी आलोचनाका जवाब देते हुए गांधीजीने कहा कि विदेशी कपड़ोंकी होली जलाकर हम वास्तव में अपनी शौकीनीको ही जला रहे हैं। इसमें उद्देश्य विदेशियोंको नहीं, अपनेको ही दण्ड देनेका है । . . . विदेशी कपड़ोंकी होलीके विचारके पीछे घृणाकी नहीं, बल्कि अपने अतीतके पापोंके लिए प्रायश्चित्तकी भावना रही है।... रोग इतना गहरा बैठ गया था कि शल्य-चिकित्साके अतिरिक्त उसका कोई उपचार नहीं बचा था. . . (पृष्ठ १०६) ।

इस सबके बावजूद लोगोंके मनमें विदेशी कपड़ोंको जलाने के औचित्य के विषयमें सन्देह बना रहा। अक्तूबरमें कविश्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर और गांधीजीके बीच इसको लेकर जो लिखा-पढ़ी हुई, वह इस दृष्टिसे सर्वाधिक मार्मिक थी। ६ सितम्बरको कलकत्तामें दोनोंकी भेंट हुई थी और उस भेंटमें कुछ मतभेद सामने आये। समाचार- पत्रों में उक्त भेंटके त्रुटिपूर्ण विवरण प्रकाशित हुए और ऐसा जान पड़ा मानो विवरणोंका उद्देश्य देशके इन दो महान् व्यक्तियोंके बीच में मतभेद उत्पन्न करनेका ही हो । रवीन्द्रनाथ ठाकुरका 'मॉडर्न रिव्यू' के अक्तूबर-अंकमें "सत्यकी पुकार" शीर्षक एक शानदार निबन्ध प्रकाशित हुआ । स्वदेशी आन्दोलनको उसमें रवीन्द्रनाथने देशको आधुनिक अन्तर्राष्ट्रीय सुप्रभावोंसे वंचित करनेका एक प्रयत्न कहा था। गांधीजीने "महान प्रहरी" शीर्षक जोरदार लेख लिखकर इस निबन्धका उत्तर दिया। "वे हमारी चमत्कृत आँखोंके सामने एक सुन्दर चित्र प्रस्तुत करते हैं -- उषःकालमें पंछी अपने बसैरोंसे निकलकर आकाशमें ईश्वरका गुणगान करते हुए उड़े चले जा रहे हैं। किन्तु वे भूल जाते हैं कि इन पंछियोंको उस रात से पहलेके दिन, पूरा आहार मिला था और जब ये प्रातःकाल उड़कर चले तब इनके डैने काफी विश्राम पा चुके थे और उनकी नसोंमें पिछली रात नये रक्तका संचार होता रहा था। लेकिन मैंने तो शोक-विह्वल मनसे ऐसे पंछी भी देखे हैं जो शक्तिके अभाव में लाख प्रोत्साहन और हिम्मत देनेपर भी अपने डैने फड़फड़ा तक नहीं पाये। भारतीय आकाशके तले रहनेवाले मानव-पंछीको रात में नींद नहीं आती। वह सोनेका महज बहाना करता है और प्रातःकाल जब उठता है तब वह पिछले दिनसे भी ज्यादा कमजोर उठता है ।. . . मैंने तो किसी रुग्ण व्यक्तिकी पीड़ाको कबीरका भजन सुनाकर दूर कर पाना असम्भव ही पाया है। करोड़ों भूखे लोग आज एक ही कविताकी माँग कर रहे हैं -- भूख मिटानेवाली भोजन-रूपी कविताकी। लेकिन वह उन्हें कोई नहीं दे पा रहा है। उन्हें अपना भोजन स्वयं प्राप्त करना है और वे उसे प्राप्त कर सकते हैं सिर्फ अपने भालका पसीना बहाकर” (पृष्ठ ३०५) ।

गांधीजीने देशकी अभावग्रस्त जनता के साथ जिस तीव्रताके साथ अपना साधारणीकरण किया, उससे उनका व्यक्तिगत जीवन भी बदलता चला गया । खादीकी कमीकी चर्चा करते हुए गांधीजी प्रायः लोगोंसे अपने कपड़े की जरूरतको अधिकाधिक