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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हैं। इसके बाद रेल धीरे-धीरे ऊपरको चढ़ती है और एकके बाद दूसरे पहाड़पर लगातार चढ़ती ही जाती है। पूनाके रास्ते में पड़नेवाले घाट, कह सकते हैं इनके आगे कोई चीज नहीं। हवा एकदम बदल जाती है। बीमार आदमी भी तरोताजा हो जाता है। जहाँ देखिए वहीं हरीभरी पहाड़ियाँ। इस हिस्से में बादलोंका तो अन्त ही नहीं है। कई बार तो बादल टेकड़ियोंके नीचे ही रह जाते हैं। कभी-कभी भापके गोले ऊपर जाकर बादलोंमें मिलते हुए साफ तौरपर नजर आते हैं। पहाड़ों में से निकलनेवाली बड़ी-बड़ी नदियाँ तो मानो रेलके साथ शर्त बदकर दौड़ती हुई नजर आती हैं। ऐसा दृश्य मैंने तो दुनियामें और कहीं नहीं देखा। आफ्रिका, इंग्लैंड वगैरहके भिन्न-भिन्न दृश्य मैंने काफी देखे हैं; परन्तु इसके मुकाबलेमें टिकने लायक कोई भी दृश्य मुझे नहीं दिखा।

हमें सिलचर जाना था। सिलचर में पानी खूब बरसता है। दो सौ इंचमें तो कोई शक ही नहीं है। इससे वहाँ बेहद नमी है। जहाँ देखिए वहीं तालाब भरे हुए हैं। सिलचर पहाड़की तलहटीमें बसा है। इससे वहाँ हम गर्मी से परेशान हो रहे थे। परन्तु लोगों के दिल में इतना प्रेम उमड़ रहा था कि बरसते पानी में भी खुले मैदानमें हजारों आदमी जमा हो गये थे। अभिनन्दनपत्र तो हर जगह खादीके ही वस्त्रपर दिया जाता है। आडम्बर-भरे अभिनन्दनपत्रोंका तो जमाना ही अब चला गया। मुझे अन्देशा था कि इस तरफके लोग अंग्रेजी भाषाकी पुकार मचायेंगे। परन्तु ऐसा नहीं हुआ। लोग हिन्दुस्तानी भाषाके बहुत आदी हो गये हैं -- इतने कि बंगालमें तो अब अंग्रेजी बोलनेवालेको ही शरमाना पड़ता है। सिलचरमें हम बाबू कामिनीकुमार चन्दाके यहाँ ठहरे थे। असहयोग आन्दोलन के पहले आप शाही परिषद्के मेम्बर थे; और वकालत करते थे। अब आपने दोनों काम छोड़ दिये हैं और असहयोगका काम कर रहे हैं। उनकी धर्मपत्नी, उनकी लड़कियाँ, सब चरखा कातती हैं । यहाँके चरखोंकी बनावट काम करने की दृष्टिसे सुविधाजनक नहीं है। चरखे बहुत छोटे और कमजोर; पटिया बहुत ही छोटी। उसपर सूत भी कम निकलता है। तो भी राष्ट्रीय पाठशाला इत्यादि कई जगहोंपर चरखेने अपना आसन तो बिछा ही लिया है।

एक दिन सिलचर रहकर हम लोग सिलहट गये। यहाँ मुसलमानोंकी आबादी कोई ५५ प्रतिशत है। इस तरफके मुसलमानों में दूसरी जगहकी बनिस्बत जागृति कम है। इससे, मुसलमानोंकी इतनी ज्यादा तादाद होते हुए भी, खिलाफतके स्मर्नाके चन्देमें सिर्फ २१६ रुपये जमा हुए। सिलहटमें एक मुसलमान वकील हैं -- मौलवी मुहम्मद अब्दुल्ला। सारे कामका भार उन्हींपर है। उनके प्रयत्नसे वहाँ एक बुनाईकी पाठशाला स्थापित हुई है। उसीके सिलसिले में बढ़ईगिरीका काम भी होता है। वहीं चरखे और करघे बनाये जाते हैं। ये सब काम असहयोग आन्दोलन के बाद ही हुए हैं। सिलहटमें सभा ईदगाह में की गई थी। मौलाना मुहम्मद अली कहते थे कि ऐसी खूबसूरत ईदगाह तो हमने कहीं नहीं देखी। ईदगाह जिस टेकड़ीपर है वह सिलहटकी सुन्दरसे-सुन्दर टेकड़ी है। उसपर कोई पाँच हजार आदमी बैठ सकते हैं। चारों ओर हरियाली बिछी हुई है। नीचे खुला मैदान और उसमें तालाब है। पूरी पहाड़ीपर, नीचे-ऊपर सब दूर लोग खचाखच भरे थे। सिलहटकी आबादी २० हजार होगी। पर उस