पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 21.pdf/१४

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आठ

कम करनेकी बात कहा करते थे। वे जो कुछ कहते थे, उसका आचरण करते थे। इसलिए २३ सितम्बर के सवेरे मदुराके जुलाहोंकी एक सभामें वे केवल एक लंगोटी पहन- कर गये और उन्होंने कहा : "हमारे यहाँकी जलवायु ऐसी है कि गर्मियोंके दिनों में शरीर-रक्षाकी दृष्टिसे ज्यादा कपड़े जरूरी नहीं होते। पहनावे के बारे में कोई मिथ्या शिष्टाचार बरतना आवश्यक नहीं है” (पृष्ठ १८७) । ३१ अक्तूबरको गांधीजीने शाम के भोजनके पहले तक नित्यप्रति आधा घंटा सूत कातनेका संकल्प किया और शपथ ली कि यदि वे किसी दिन किसी कारण से शाम तक आधा घंटा कात नहीं पायेंगे, तो उस दिन रातका भोजन नहीं करेंगे। इसी अवधि में गांधीजीने प्रति सप्ताह सोमवारको उपवास और मौन रखनेका व्रत लिया और आजन्म इस व्रतपर दृढ़ रहे। उपवास और मौन रखने का यह व्रत १७ नवम्बरको बम्बई में हुए उस दंगेका नतीजा था जो नगर में प्रिंस ऑफ वेल्सके आगमन के समय हुआ था। प्रिंस ऑफ वेल्सके आगमन के बारेमें गांधीजीकी राय यह थी कि युवराजकी यात्राका नाजायज फायदा उठाकर भारत में ब्रिटिश शासन के "कल्याणकारी" रूपका प्रचार किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि इस "कल्याणकारी" रूपका प्रचार देश में दमन चक्र चलाकर किया जा रहा है (पृष्ठ ३६६) । इसलिए उन्होंने जनता से कहा कि युवराजके स्वागत में आयोजित किसी भी कार्यक्रम में कोई भाग न लिया जाये, किन्तु साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि ऐसे कुछ लोग अवश्य होंगे जो किसी भय, आशा अथवा अपनी मर्जी से विभिन्न समारोहों में शामिल होना चाहेंगे। उन्हें भी अपनी इच्छा के अनुसार चलनेका उतना ही अधिकार है जितना हमें (पृष्ठ ३६८ ) । इसी १७ तारीखको जब गांधीजी एक सार्वजनिक सभा में लोगोंको उनके शान्तिपूर्ण व्यवहार और बहिष्कारकी सफलतापर बधाई दे रहे थे, नगरके दूसरे भाग में लोगोंने कुछ ऐसे लोगोंसे हाथापाई शुरू कर दी जो बहिष्कार में शामिल नहीं हुए थे। १९१९ के अप्रैलमें जो उपद्रव हुए थे (देखिए खण्ड १५) उनसे गांधीजीको इतना दुःख नहीं हुआ था, जितना इन उपद्रवोंसे हुआ। उसी तिथिको लिखे गये अपने एक पत्र में वे लिखते हैं: "स्वराज्यकी अग्रिम झाँकी देखकर मैं लज्जित हूँ" ( पृष्ठ ४८५ ) । दो दिन बाद उन्होंने नागरिकों के नाम एक अपील प्रकाशित करते हुए स्वीकार किया : " उक्त दो दिनोंमें मैंने स्वराज्यका जो रूप देखा है, उसकी सड़ांध मेरे भीतर तक पैठ गई है (पृष्ठ ४८९) । उन्होंने यह भी कहा : "आप लोग अनायास यह समझ ले सकते हैं कि उन लोगोंको अधिकसे-अधिक राहत पहुँचाना मेरा कर्त्तव्य है जिन्हें मुख्यतया मेरे निमित्त से उद्भूत हलचलका शिकार बनना पड़ा है" (पृष्ठ ४९०) । प्रायश्चित्त और तपश्चर्याके रूपमें उन्होंने उपवासकी घोषणा कर दी और स्पष्ट कर दिया कि जबतक विभिन्न सम्प्रदायों के बीच स्नेह और शान्तिका सम्बन्ध स्थापित नहीं हो जाता, उपवास चलता रहेगा ।

परिस्थितियाँ जल्दी ही इतनी सुधर गई कि गांधीजीने अपना उपवास तोड़ दिया। किन्तु फिर भी उनकी दृष्टिमें देशका राजनीतिक वातावरण इतना खराब तो हो ही चुका था कि जिस सार्वजनिक सविनय अवज्ञाको देशके कुछ चुने हुए हिस्से में प्रारम्भ करनेकी तैयारी हो रही थी उन्हें उसका विचार छोड़ देना पड़ा। किन्तु