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४६. कपड़ोंकी होलीका विरोध

सम्पादक

'यंग इंडिया'

महोदय,

आपके इस विचारसे कि १ अगस्तको इकट्ठे किये गये सभी विदेशी कपड़ों को या तो जला दिया जाये या स्मर्ना भेज दिया जाये, और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटीने अपनी पिछली बैठकमें आपके इस विचारको जो समर्थन दिया उससे मैं हैरान रह गया। इसके साथ जो सवाल जुड़े हुए हैं, वे इतने महत्वपूर्ण हैं कि मैं यह पत्र लिखे बिना नहीं रह सकता। पहली अगस्त आई और चली गई; और जो-कुछ नष्ट हो चुका उसे अब लौटाया नहीं जा सकता। लेकिन अपने अपेक्षाकृत शान्त क्षणोंमें हम अपने कार्योंपर नयी दृष्टिसे विचार कर सकते हैं, और इस तरह हम उन चीजोंकी पुनरावृत्ति रोक सकते हैं, जो इस प्रकार सोचनेपर हमें गलत लगे।

असहयोग आन्दोलनसे यदि उसकी अनावश्यक बातोंको निकाल दिया जाये और इससे सम्बन्धित मत-मतान्तरोंकी अस्थायी उलझनका खयाल न किया जाये तो यह आन्दोलन मुझे बराबर भारतके नवोदयके प्रतीक-जैसा लगा है; इसमें मुझे इस देशकी आत्माके स्वरकी प्रबल प्रतिध्वनि सुनाई पड़ी है -- उस स्वरकी जिसे वर्षोंतक आदर्श-हीन जीवन बिताने के कारण, शक्ति-श्रीसे हीन हो जानेके कारण तथा स्वार्थपरता और अज्ञानके वशीभूत होकर भुला दिया गया था। इस आन्दोलनकी कल्पना अहिंसाकी जिस भावनासे की गई थी उसे मैं जीवनकी समस्त व्याधियोंका उपचार मानता हूँ, बशर्ते कि मनुष्य उस ऊँचाईतक उठ सके। लेकिन लोकमान्य तिलककी स्मृति में सभी विदेशी कपड़ोंकी होली जलाने के कामको मैं उन उच्च आदर्शोंके उपहासके अलावा और कुछ नहीं मान सकता जो मेरी नम्र सम्मतिमें असहयोग आन्दोलनकी प्रेरक शक्ति थे|

कहा जाता है कि सभी विदेशी कपड़ेको जला देना चाहिए; क्योंकि (१) विदेशी कपड़ा परतन्त्रताका प्रतीक है और गरीब-अमीर दोनोंके लिए गुलामीका बिल्ला है, तथा (२) यह पापका परिधान है जिसे ईस्ट इंडिया कम्पनीने हमपर दुष्टतापूर्वक थोप दिया और जो हमारी असहायावस्था और अज्ञानके कारण चलता रहा। दोनों ही बातों में हम इसके विनाशके द्वारा ही इससे छुटकारा पा सकते हैं; और हममें से गरीबसे गरीब लोगोंके भी तन ढँकनके लिए इस कपड़े का उपयोग करना उतना ही पापपूर्ण होगा जितना कि भूखेको सड़ा-गला