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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

और विषैला भोजन देना। लेकिन बड़ी विचित्र विसंगति है कि साथ ही हमसे यह कहा जाता है कि यह कपड़ा स्मर्नाके लोगोंके लिए भेजा जा सकता है।

उपर्युक्त दलीलें जिन मान्यताओंके आधारपर पेश की गई हैं, उनपर में विचार नहीं करना चाहता। मैं स्वदेशीकी आवश्यकता महसूस करता हूँ, खादीके नैतिक तथा अंशतः आर्थिक महत्वमें भी मेरा विश्वास है और इसी तरह चरखेको फिरसे अपनाने तथा भारतके इस प्रमुख उद्योगके पुनरुद्धारमें भी विश्वास करता हूँ। लेकिन, मेरे विचारसे यह बात आसानीसे सिद्ध की जा सकती है। कि जबतक विदेशी कपड़े के मुकाबले कुल मिलाकर चौगुने मूल्यका दूसरा माल भारत में बाहरसे आता रहेगा तबतक अपनी अन्य जरूरतें पूरी करनेके लिए हम उसी परिमाणमें परमुखापेक्षी रहेंगे, और इसलिए उस विदेशी मालको भी जला देना चाहिए। और यह बात तो और भी आसानीसे समझाई जा सकती है कि विदेशी लेखकों द्वारा विदेशी भाषाओं में लिखी पुस्तकें, मशीनें, औषधियाँ तथा आधुनिक विज्ञान और मानवी कौशल तथा मेधाके वलपर --- अर्थात् उन गुणोंके बलपर जिनमें वे आज हमसे बहुत आगे निकल गये हैं -- तैयार की गई चीजें, विदेशी कपड़ेके मुकाबले, हमारी परतन्त्रताका कहीं अधिक गहरा निशान हैं और हमारी शारीरिक और मानसिक गुलामीके कहीं अधिक विरूप बिल्ले हैं, अतः हमें उन्हें नष्ट करके उनसे भी छुटकारा पा लेना चाहिए। और फिर, जैसा कि कुछ लोगोंका विचार है, हम विदेशियोंको नष्ट करके उनसे भी क्यों न छुटकारा पा लें ? आखिर वे ही तो हमारी इन सारी व्याधियोंकी जड़ हैं!

फिर, अगर ईस्ट इंडिया कम्पनीके समयके भारतीय और उनके कारण उनकी आजकी सन्तान इसलिए पापको भागी हैं कि वे उस कम्पनीकी दुष्टताके आगे झुक गये, जिसने हमारे बुनकरोंको निकम्मा बनाया और हमारे इस उद्योगको बर्बाद कर दिया; और उस पापका प्रायश्चित्त तो सिर्फ उनके अपराधके मूल कारणको होली जलाकर ही हो सकता है तो दूसरे कपड़ेको छोड़कर अंग्रेजी कपड़ेको ही क्यों न जलाया जाये? फिर, अगर किसी गरीब और भूखे भारतीयको सड़ा-गला और विषाक्त भोजन देना ठीक नहीं है तो क्या किसी असहाय तुर्कको वही भोजन देना ठीक है? अपने उतारे हुए विदेशी कपड़ोंको स्मर्नाके लोगोंके लिए भेजना मुझे अपने देशभाइयोंको वह कपड़ा देनेसे भी अधिक पापपूर्ण लगता है; क्योंकि किसी भी राष्ट्रका किसी दूसरे राष्ट्रको अपना उच्छिष्ट और फटा-पुराना देना स्वयं उस देनेवाले राष्ट्रके लिए लज्जाजनक है। इसके सिवा विदेशियोंने, मित्र-शक्तियोंने, इस्लामके प्रति जो अन्याय किया है वह ईस्ट इंडिया कम्पनीने हमें जो हानि पहुँचाई है उसके मुकाबले अधिक ताजा है और बहुतसे लोगोंके विचारसे अधिक बड़ा भी है। तब क्या हम इस बातको किसी भी तरह