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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

पापोंके लिए प्रायश्चित्तकी भावना रही है। पत्र लिखनेवाले सज्जन एक क्षणको भी सोचकर देखें तो उनके सामने स्पष्ट हो जायगा कि विदेशी कपड़े जला देनेसे हममें अधिक तत्परता आयेगी और इस तरह हम और ज्यादा कपड़ा तैयार करनेकी ओर प्रवृत्त होंगे, जैसा कि हुआ भी है। रोग इतना गहरा पैठ गया था कि शल्य-चिकित्सा के अतिरिक्त उसका कोई उपचार नहीं बचा था। अध-नंगे या नंगे भारतीयोंको दान या दयाकी जरूरत नहीं है। उन्हें जरूरत है ऐसे धंधेकी जो वे अपनी झोपड़ियों में आसानी से कर सकें। क्या गरीबोंमें आत्म-सम्मान और देशभक्तिकी कोई भावना नहीं है ? क्या स्वदेशीका सन्देश केवल सम्पन्न लोगोंके लिए ही है ?

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, १५-९-१९२१

४७. विचारकी उलझन

सम्पादक

'यंग इंडिया'

प्रिय महोदय,

धरना देनेकी उपयोगितापर मैंने आपकी दलीलें पढ़ीं। बंगालके असहयोगी विद्यार्थी जब कानूनके परीक्षार्थियों को परीक्षामें बैठनेसे रोकनके उद्देश्यसे कलकत्ता विश्वविद्यालय, कालेज तथा सिनेट भवनके फाटकोंपर लेट गये थे, उस समय उनके मनमें यही दलीलें काम कर रही थीं। उन्होंने हाथ जोड़कर अपने परीक्षार्थी भाइयोंसे सोनेके घड़ेमें रखे इस विषका पान न करनेका अनुरोध किया था। धरना देनेके इस नये तरीकेसे कितनी सफलता मिली, यह आपको मालूम ही है। परीक्षा भवन बिलकुल वीरान हो गये थे और बादमें फिरसे परीक्षा लेनी पड़ी थी। लेकिन तब आपने ही धरना देनेसे असहमति प्रकट की थी और फलतः सारा प्रयत्न छोड़ देना पड़ा था। इतने शानदार तरीकेसे जो सफलता प्राप्त हुई थी, सब मिट्टी में मिल गई, और आज बंगाल इस बात के लिए पछताता है कि उसके नौजवानोंके भालपर विफलताकी कुख्यातिका टीका लगा हुआ है। जब धरना देनेवाले फाटकके सामने लेट गये थे, तब उनके पीछे इस दलीलका बल था कि "किसी बीमार आदमीके न चाहनेपर भी हमें उसका इलाज करना ही है।" आधुनिक शिक्षाके बारेमें आपको सलाहको सचमुच समझकर तथा अपने कालेज छोड़नेका साहस दिखाकर उन्होंने अपने-आपको कृतार्थ माना। लेकिन तब भाइयोंकी हैसियतसे अपने भाइयोंको परीक्षामें बैठनेसे मना करना भी उन्हें अपना अनिवार्य कर्त्तव्य जान पड़ा। कोई आदमी गलत काम कर रहा हो तो जमीनपर लेटकर उसका रास्ता रोकना, उसे समझाने-बुझाने-का पूर्वके देशोंमें प्रचलित एक मान्य नैतिक तरीका है, इसमें तो कोई सन्देह