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हमारी पतित बहनें

उसकी अन्धी नकल करने लगते हैं, उसी घड़ी हमारा विकास बन्द हो जाता है। पुराने जमाने में जो कुछ ऊँची-ऊँची और अच्छीसे-अच्छी चीज थी हमें उसके वारिस होनका गर्व है। हमें पिछली भूलोंकी संख्या बढ़ाकर उस विरासतका अपमान नहीं करना चाहिए। क्या स्वाभिमानी भारतमें हर स्त्रीके सतीत्वकी हर पुरुषको उतनी ही चिन्ता न होनी चाहिए जितनी उसे अपनी सगी बहनकी इज्जतकी है ? समाजका अर्थ ही यह है कि हम हिन्दुस्तानके हर निवासीको अपने भाई-बहनकी तरह समझें।

और इसलिए पुरुष होने के नाते इन सौ बहनोंके आगे मेरा सिर शर्मके मारे झुक गया। इनमें से कुछ अधेड़ थीं, ज्यादातर २० और ३० वर्षोंके बीचकी थीं। और दो या तीन बारह सालसे कम उम्र की लड़कियाँ थीं। उन्होंने मुझे बताया कि उन सबकी मिलाकर छ: लड़कियाँ और चार लड़के थे, जिनमें से सबसे बड़ेकी शादी उनके ही वर्गकी किसी एक लड़कीसे हुई थी। अगर और कोई उपाय न बन पड़ा तो उनकी लड़कियोंको उन्हींकी-सी जिन्दगी बिताने की तालीम दी जायेगी। यह देखकर कि ये स्त्रियाँ ऐसा समझती हैं कि उनका तो उद्धार हो ही नहीं सकता कलेजेमें घाव-सा लगा। परन्तु वे थीं समझदार और हयावाली। उन्होंने बातचीत मर्यादाके साथ की ओर जवाब सीधे और साफ दिये। और उस वक्त तो उनका निश्चय भी ऐसा ही पक्का था जैसा कि किसी सत्याग्रहीका होता है। उनमें से ग्यारहने तो यह भी कहा कि यदि उन्हें आवश्यक मदद मिले तो वे दूसरे ही दिनसे मौजूदा जीवन छोड़कर कताई-बुनाईका धन्धा करने लगेंगी। औरोंने कहा कि हमें सोचनेका कुछ समय चाहिए, क्योंकि हम आपको धोखा नहीं देना चाहतीं।

यह काम बारीसालके नागरिकोंके करनेका है। यह काम हिन्दुस्तानके सभी सच्चे सेवकोंका है, भले वे स्त्रियाँ हों या पुरुष। अगर २०,००० की आबादीमें ऐसी ३५० अभागी बहनें हैं, तो भारत भरमें कदाचित् ५२,५०,००० होंगी। लेकिन मैं यह मानकर अपने मनको समझा लेता हूँ कि हिन्दुस्तानकी जो चार-पंचमांश आबादी गाँवोंमें रहती है और सिर्फ खेतीका धंधा करती है, वह इस पापसे अछूती होगी। इसलिए सारे देशमें अपनी इज्जत बेचकर गुजर करनेवाली औरतोंकी कमसे कम संख्या १०,५०,००० होंगी। इन अभागी बहनोंका इस पतनसे उद्धार करनेके लिए दो शत पूरी होनी जरूरी हैं। एक तो हम पुरुषोंको अपने विकारोंपर काबू करना सीखना चाहिए, और दूसरे इन औरतोंको कोई ऐसा धन्धा ढूंढ देना चाहिए जिससे वे इज्जत के साथ रोजी कमा सकें। अगर असहयोग-आन्दोलनसे हमारी शुद्धि नहीं होती और हममें बुरे विकारोंको रोकनेकी शक्ति नहीं पैदा होती, तो इस आन्दोलनका कोई अर्थ नहीं। और कातने-बुननेके सिवा कोई ऐसा धन्धा नहीं है जिसे सब लोग अपना लें और फिर भी भीड़ न हो। इनमें बहुत-सी बहनोंको तो ब्याह करनेका विचार करनेकी जरूरत नहीं। उन्होंने मंजूर भी किया कि जरूरत नहीं है। इसलिए उन्हें भारतकी सच्ची संन्यासिनियाँ बन जाना चाहिए। सेवाके सिवा जीवनकी और कोई चिन्ता न होनेके कारण वे जी भरकर कात और बुन सकती हैं। दस लाख पचास हजार स्त्रियां आठ घंटे रोज लगनके साथ बुनाई करें, तो इसका मतलब यह हुआ कि इस कंगाल मुल्कको रोज उतने ही रुपयोंकी कमाई होगी। इन बहनोंने