पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 21.pdf/१४७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
११७
भेंट : 'डेली एक्सप्रेस' के प्रतिनिधिको

मैं यह नहीं कह सकता कि सरकार मेरे आन्दोलनके कारण विफल हुई है। अभी साल भर भी नहीं हुआ है, जब बड़ी विपरीत परिस्थितियोंमें मेरा आन्दोलन आरम्भ हुआ था। एक तरफ तो हमपर सरकार हँसती थी, दूसरी तरफ हमारे भाई हँसते थे। उन्हें 'असहयोगी' शब्दको समझा पाना मेरे लिए बहुत कठिन हो गया था। किसी सुधारकको इतनी कठिनाइयोंका सामना नहीं करना पड़ा है, जितनी मेरे सामने हैं। मैं जानता हूँ कि इन कठिनाइयोंको मैंने स्वयं आमन्त्रित किया है, मगर मेरे लिए और कोई रास्ता नहीं था। अतएव, जब मैं कहता हूँ कि अहिंसा तो महज एक नीति है, तब वे नहीं समझते कि यह कैसी नीति है। हिन्दू-मुसलमानोंकी एकताकी समस्याके समाधानका प्रयत्न करते समय अहिंसा ही हम लोगोंका अन्तिम सिद्धान्त होना चाहिए। यदि इसको मैं कर सका तो हम लोग अति शीघ्र अपनी मुराद हासिल कर लेंगे। यदि कोई असहयोगी मोपलोंके जिलोंमें जाता है तो सरकार हस्तक्षेप करती है। उन्हें रोक दिया जाता है। हम लोगोंका तो कहना ही यह है कि उपद्रव उन्हीं जगहों में हुआ है जहाँ असहयोगियोंकी पैठ सबसे कम हो पाई थी।

क्या आप यह नहीं मानते कि मोपले धार्मिक नेताओंके कहने में हैं, राजनीतिक नेताओंके नहीं ?

यह बात सच है। इसीलिए तो मैं धर्म और राजनीतिको मिला रहा हूँ। मैंने इन धार्मिक पण्डितोंको यह समझानेका प्रयत्न किया है, और बहुत सफल प्रयत्न किया है कि उनके लिए देशके राजनीतिक जीवनसे प्रभावित हुए बिना रहना असम्भव है। यदि वे उस प्रभावको ग्रहण नहीं करते तो अधिकांश जनतापर वे अपना सारा नियंत्रण खो बैठेंगे। एक इतना बड़ा उपद्रव जारी रहा है। यदि यह सरकार ईमानदारीसे काम करती होती तो मैं अलीभाइयोंमें से एकको ले जाता और तुरन्त इसको शान्त करा देता। अगर हम लोग शान्ति स्थापित नहीं करा सकते तो जीवित भी नहीं बचते। हम लोग मारे जाते। यह सरकारके लिए भी अच्छा होगा और हमारे लिए भी। लेकिन हमारी मृत्युके बाद हमारी खाकमें से अहिंसाकी भावनाका जन्म हुआ होता।

[ अंग्रेजीसे ]
हिन्दू, १६-९-१९२१