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भाषण : कपड़ा व्यापारियोंकी सभा, मद्रासमें

है कि कपड़े की कुछ ऐसी किस्में होती हैं जो भारतसे बाहर थोड़े बहुत मुनाफेपर भी नहीं बेची जा सकतीं। परन्तु फिर भी निःसन्देह मालका बहुत बड़ा भाग ऐसा है जो जिस तरह भारतमें बेचा जा सकता है उसी तरह भारतके बाहर भी। मैं आपसे यह कहना चाहता हूँ कि आप लोग सोचकर कोई ऐसा रास्ता निकालिए कि जिससे कमसे-कम थोड़ा-बहुत विलायती माल बाहर भेज दें। उदाहरणके तौरपर आपके पास जो भी विदेशी सूत है वह सबका सब भारतसे बाहर भेज देने में मैं कोई कठिनाई नहीं देखता। परन्तु यदि मेरी तरह आप हमारी स्थितिपर उदारताके साथ और राष्ट्रीय दृष्टिकोण से विचार करें तो मैं अभी एक और सुझाव देना चाहूँगा। परन्तु मैं जानता हूँ कि मेरे सुझावको अमल में लानेसे पहले आपको भी मेरी ही तरह उसमें गहरा विश्वास रखना होगा। यदि भारत-भरके सारे व्यापारी देशके प्रति सच्चे हों, और स्वराज्य प्राप्तिके लिए अपनी पूरी शक्ति और शानदार योग्यतासे काम लें और यदि वह योग्यता और शक्ति अविलम्व ही संगठित काममें लगाई जा सके; यदि आपका भी मेरी तरह यह विश्वास हो कि स्वराज्य इसी सालके अन्दर प्राप्त किया जा सकता है, और यदि आप जैसे समझदार लोग उसे प्राप्त करनेकी दिशामें काम करनेका इरादा रखते हों, तो आप अपना माल जमा भी रख सकते हैं। ताकि स्वतन्त्र देशकी केन्द्रीय सरकार अपनी प्रथम संसदके द्वारा उसे ठिकाने लगाये; यदि आप कोई ऐसा निर्णय करें तो आपको श्रेय मिलेगा और देशका भी बड़ा हित होगा। परन्तु मैं जानता हूँ कि मेरी यह सलाह आदर्श है और इसलिए अननुकरणीय कहकर टाली जा सकती है। लेकिन साथ ही याद रखिये अन्य देशोंने कहीं ज्यादा और बड़े काम कर दिखाये हैं। मैं जानता हूँ कि जब अंग्रेजोंसे युद्ध चल रहा था, तब दक्षिण आफ्रिकामें क्या हुआ था। दक्षिण आफ्रिकामें बसे हुए डच लोग बहादुर और ईश्वरसे डरनेवाले लोग थे। उनको अपने देशके भाग्यमें अडिग आस्था थी, अतः उन्होंने अपने देशकी आजादीको कायम रखने के लिए किसी भी कीमतको ज्यादा नहीं माना। परन्तु जैसा कि मैंने कहा है, यदि आप धीरज नहीं रख सकते और यदि आपको ऐसा विश्वास नहीं है कि हम इसी सालके अन्दर स्वराज्य ले सकते हैं, तो आप विदेशी कपड़ेका आयात सीधे या छिपे तौरपर करना बन्द कर दें, और आपसके सौदे भी न करें। इससे मौजूदा जरूरतें सर्वथा पूरी हो जायेंगी। मैं आपके सामने कुछ गणित-सम्बन्धी समस्याएँ रखना चाहता हूँ। आज आयात करनेवाले लोग वास्तवमें कमीशन एजेंटों या दलालोंके सिवा कुछ नहीं हैं। आपको शायद १०० रु० के कपड़े पर ५रु० मिलते हैं। परन्तु ९५ रुपये तो पूरी तरह आपके मुख्य मालिकोंकी जेबोंमें पहुच जाते हैं। अब आप कल्पना कीजिए कि भारतमें हमें जिस कपड़े की जरूरत है, आप ही उसके निर्माता हैं। उस दशामें सौके-सौ रुपये भारतमें ही रहेंगे और आप देखेंगे कि फिर भी हमें उस सब कपड़े की जरूरत पड़ेगी, जिसका अबतक हम बाहर से आयात करते रहे हैं। प्रतिवर्ष ६० करोड़ रुपयोंका व्यापार कौन करेगा ? यह बतानेकी जरूरत नहीं कि आप लोग ही करेंगे। आप सामर्थ्यवान् हैं। आप आँकड़ोंका मूल्य जानते हैं। आप अपने देशकी जरूरतसे भी परिचित हैं। तो जब मैं आपको यह सुझाव देता हूँ कि आपको