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गुजरातको क्या करना चाहिए ?

भूलता। ये सब बातें हमारी आँखोंके सामने न हो रही होतीं तो क्या हम विश्वास करते ?

किन्तु गुजरात अथवा सूरत सचमुच तैयार हों तो उन्हें इसकी निशानी पहले से बतानी होगी। सूर्योदय होने के लक्षण दो घंटे पहले से दिखाई देने लगते हैं। उसी प्रकार हमें दासताके अन्धकारके विलय और स्वराज्यके सूर्योदयके बीचकी संधि-वेलाका दर्शन होना चाहिए। रुपया इकट्ठा हो गया यह इसकी एक निशानी थी। किन्तु उसकी सच्ची निशानी तो स्वदेशीका व्यवहार ही है। क्या गुजरातने विदेशी कपड़ा सब जला दिया या त्याग दिया ? क्या उसने विदेशी कपड़ा मँगाना बन्द कर दिया ? क्या गुजरात के गाँव अपने हाथकी बनाई खादी पहनने लग गये हैं ? क्या गुजरातके बुनकर केवल हाथका कता सूत ही बुनते हैं ? क्या गुजरातके कपड़ा एजेंटोंने कपड़ेके लिए बम्बई आना-जाना बन्द कर दिया है ? क्या गुजरातके मेघवालोंने अपना छोड़ा हुआ बुनाईका धन्धा फिर अपना लिया है ? क्या गुजरातकी सब बहनें अपना धर्म समझकर सूत कात रही हैं ? और क्या गुजरातकी विदेशी कपड़े की दुकानें बन्द होने जा रही हैं ? इन प्रश्नोंके उत्तरपर ही गुजरातकी योग्यता या अयोग्यता निर्भर करती है।

हम जबतक खादी नहीं पहनने लगते, जबतक हमारे भाइयों और बहनोंमें विदेशी कपड़ा पहनने का चाव मौजूद है तबतक यदि यह कहा जाये कि वे जेल जानेके लिए तैयार हो गये हैं तो उसपर विश्वास कौन करेगा ? मुझे आशा है कि कोई यह न कहेगा, “मुझमें जेल जाने का साहस है; किन्तु मेरी हिम्मत खादी पहननेकी नहीं होती, मुझे चरखा चलाने में लज्जा आती है और कपड़ा बुनने में झुंझलाहट लगती है।" यदि हममें शान्ति कायम रखनेकी शक्ति आ गई हो, तो हममें से सभा-समारोहोंमें शोरगुल करने की शक्ति भी चली जानी चाहिए। हजारों लोग चुपचाप चल सकें, ऐसा होना चाहिए। जबतक हम इतना न सीख जायें तबतक हम हिंसाके लिए भड़काये जानेपर भी हिंसा नहीं करेंगे, यह कैसे माना जा सकता है ?

श्री विट्ठलभाईने मुझे ऊपरकी खबर देते हुए यह भी कहा था, "यदि आप मानते हों कि अस्पृश्यताका मैल जाना भी जरूरी है, तब तो स्वराज्य इस वर्ष नहीं मिलेगा, क्योंकि आपकी एक भी शाला भंगी या ढेढ़ बालकको भर्ती करनेके लिए तैयार नहीं है।"

मैं तो अवश्य ही यह मानता हूँ कि यदि हम भंगी या ढेढ़के प्रति मनमें मैल रखेंगे तो हमें ईश्वर कभी स्वराज्य न दिलायेगा और अंग्रेजोंके मनसे हमारे प्रति तिरस्कारका भाव कभी न जायेगा। आत्मशुद्धि हमारे स्वराज्यकी नींव है। स्वराज्य लेना स्वर्ग में जाने के समान है। युधिष्ठिरने अपने कुत्तेको साथ लिये बिना स्वर्ग में जानेसे इनकार कर दिया था। क्या हम अपने भंगी भाइयोंको पीछे छोड़कर और भागकर स्वराज्य के मन्दिरमें घुसने की आशा करते हैं? यदि हम अपने भंगी भाइयोंको अपने से भिन्न मानते होंगे तो हमें कटु अनुभव ही होगा। हम जैसे ही द्वारपर पहुँचेगे वैसे ही देखेंगे कि वह तो बन्द है।

[ गुजरातीसे ]
नवजीवन, १८-९-१९२१