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भाषण : त्रिचनापल्लीमें

चिह्न रहे हैं, बहिष्कार करें। इतना ही काफी नहीं कि आप अपने घरोंसे और अपने संदूकसे कुछ चिथड़े निकाल फेंके, बल्कि त्रिचनापल्लीकी स्त्रियोंको तो यह चाहिए कि वे अपनी बढ़िया से बढ़िया साड़ियाँ जो विलायती सूतसे बनी हैं और जो उन्होंने अबतक अपने पास बड़े चाव से संजोकर रखी हैं, त्याग दें। इससे मुझे पता चल जायेगा कि अपने धर्म के प्रति आपको कितना प्रेम है, अपने देशके प्रति तथा अलीभाइयोंके प्रति आपके हृदय में कितना स्नेह है। त्रिचनापल्लीके लोग, चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान, इसी मापदण्ड से अपने को परखने दें और कल सुबह्तक वे इस कसौटीपर खरे उतरें। और आपमें मौलाना शौकत अली-जैसी अथक परिश्रमशीलता और संगठन करनेकी विलक्षण क्षमता तथा मुहम्मद अली जैसी भाषण देनेकी शक्ति चाहे न हो, परन्तु प्रत्येक हिन्दू और मुसलमान अपने धर्म और देशके लिए संसारके प्रत्येक सुखको त्याग देनेके उनके गुणका अनुकरण सुगमतापूर्वक कर सकता है। उनकी तरह आप भी अपने पासका सारा विदेशी वस्त्र त्याग सकते हैं। आप भी उतना मोटा खद्दर पहन सकते हैं जितना कि ये दोनों कद्दावर भाई पिछले छ: महीनों से पहनते आये हैं। उनके प्रति आपके स्नेहकी सच्ची कसौटी वही होगी। सच्ची अहिंसा और हिन्दू-मुस्लिम एकताको आप मान्यता देते हैं इसका भी स्पष्ट प्रमाण मिल जायेगा, क्योंकि ज्यों ही हम यह दिखा देते हैं कि हमारा और उनका एक ही उद्देश्य है त्यों ही हम एकता के सूत्रमें बँध जाते हैं।

कुम्भकोणम् के विद्यार्थियों और मद्रासके विद्यार्थियोंने भी मुझसे पूछा है कि देशके इतिहासके इस नाजुक मौकेपर उनका क्या कर्त्तव्य है। उनका अत्यन्त स्पष्ट कर्त्तव्य सितम्बर में और फिर दिसम्बर में उनके सामने रख दिया गया था। और वह यह था कि विद्यार्थीगण प्रत्येक ऐसे स्कूलको, जो या तो सरकारके प्रबन्धमें या उसकी मदद से चलता हो छोड़ दें। मैं त्रिचनापल्लीके उन विद्यार्थियोंको बधाई देता हूँ जिनमें विश्वासका बल था, और जो सरकारी स्कूलोंको छोड़ने की जरूरत समझ पाये थे। इन महीनों में शानदार काम कर डालनेके उपलक्ष्यमें मैं उन्हें बधाई देता हूँ। मैं उन विद्यार्थियोंके प्रति भी अपनी सहानुभूति व्यक्त करता हूँ जो किसी-न-किसी कारणवश अपने पुराने स्कूल छोड़कर बाहर नहीं आ सके। परन्तु यदि वे चाहें तो अपने देशकी सेवा आज भी कर सकते हैं। वे भारतके लिए एक या दो घंटे, अपनी स्थिति के अनुसार, धर्मकी भावनासे कताई करनेको अलग रख सकते हैं । अन्य सब लोगोंकी तरह वे भी खद्दर पहनना शुरू कर सकते हैं। स्वदेशीकी वेदीपर हम सहयोगियों और असहयोगियोंको, जो सरकारकी नौकरीमें हैं और जो सरकारकी नौकरी नहीं कर रहे हैं उनको बल्कि उन सबको भी जो अपनेको भारतीय कहनेका दम भरते हैं, आमन्त्रित कर सकते हैं। जिस तरह भारतमें पैदा होनेवाला और भारतमें पकाया गया अन्न ही खाना हमारा प्रथम कर्त्तव्य है, उसी तरह हम वे ही कपड़े पहनें जो भारतमें काते गये सूतसे भारतमें ही बुने गये हों; और जिस तरह हम स्वभावतः अनुभव करते हैं कि अर्थशास्त्रका सच्चा नियम यही चाहता है कि हमें अपना खाना अपने घरोंमें पकाना चाहिए उसी तरह अर्थशास्त्रका नियम स्वभावतः हमसे इस बातकी भी अपेक्षा करता है कि हम अपना कपड़ा अपने घरोंमें कात और बुनकर तैयार करें।