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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

विद्यार्थियोंकी तरह बंगाल, मद्रास और कुम्भकोणम् में भी वकीलोंने मुझसे अपना कर्त्तव्य पूछा है। यदि उन्होंने वकालत नहीं छोड़ी है तो उनकी ओर तिरस्कारपूर्वक अँगुली उठाना हमारा काम नहीं है। परन्तु मैं उनसे स्वदेशीका सिद्धान्त अपनाने और हर सम्भव तरीकेसे स्वदेशी आन्दोलनकी मदद करनेका अनुरोध करूँगा। कमसे-कम उनसे इतनी आशा तो की ही जा सकती है कि वे अदालतोंमें खद्दरकी पोशाकमें जाने का साहस दिखायेंगे। यदि उन्हें स्वराज्यमें विश्वास है तो मैं उनसे और उनके परिवारवालोंसे यह आशा अवश्य करता हूँ कि प्रतिदिन धार्मिक भावनासे सूत कातने के लिए एक या दो घंटे का समय अलग निकालें। यदि आज विभिन्न गुणोंवाले लोग सार्वजनिक मंचोंपर आये हैं तो मैं आशा करता हूँ कि वकील लोग धैर्यसे काम लेंगे और श्रमका महत्व तथा जनताको सेवाका गौरव समझेंगे। साहस, लगन और विशेष रूपसे निर्भीकता तथा खुशी के साथ त्याग करने की भावना -- ये ऐसे गुण हैं जिनकी भारतमें नेतृत्व के लिए बहुत जरूरत है। मेरे मनमें इसके बारेमें जरा भी सन्देह नहीं कि एक अपढ़ पंचम भाई, जो इन गुणोंका पूर्ण परिचय दे, इस तरह के आन्दोलनका नेतृत्व करने के लिए मेरे जैसे कमजोर व्यक्तिकी अपेक्षा अधिक योग्य है। क्योंकि जिस वस्तुको प्राप्त करनेके लिए हम लालायित हो रहे हैं वह कोई पेचीदा चीज नहीं बल्कि एक बिलकुल सादी-सी वस्तु है। वह वस्तु है स्वराज्य -- जो हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। मेरे मनमें जरा भी सन्देह नहीं कि कोई भी सीधी-सादी और ईश्वरको माननेवाली स्त्री, यदि उसमें ये गुण, जिनका मैंने उल्लेख किया है, मौजूद हैं तो वह इस तरहका आन्दोलन चला सकती है। मैं त्रिचनापल्लीकी औरतोंको अपना फर्ज अदा करने और त्यागकी वेदीपर अपना पूरा योग देने के लिए आमन्त्रित करता हूँ। यह देखते हुए कि हमारा युद्ध अहिंसात्मक है, मैं इस श्रोतासमुदायमें से प्रत्येक व्यक्तिको आगाह करता हूँ कि वह अपने मन में असहिष्णुता की भावनाको हावी न होने दे। जिन विद्यार्थियोंने स्कूल या कालेज छोड़ दिये हैं, या जिन वकीलोंने वकालत छोड़ रखी है, वे बड़प्पनकी भावना न अपनायें, और जिन विद्यार्थियों अथवा वकीलोंने कांग्रेसके प्रस्तावपर अमल नहीं किया है, उन्हें नफरतकी निगाहसे न देखें। स्वराज्य के मंचपर सबसे दुर्बल और सबसे सशक्त भारतीय, दोनोंके लिए जगह है। अहिंसाकी सेनामें बच्चे और अपंग व्यक्ति भी, यदि उनका दिल सच्चा है, तो शरीक किये जा सकते हैं।

मोपला विद्रोह के सम्बन्धमें दो शब्द कहकर मैं अपना कथन समाप्त करूँगा। मैं जानता हूँ कि मलावार में जो कुछ हुआ है, उसके कारण हममें से वे सभी जो वहाँकी स्थिति समझ सके हैं, चिन्तामें घुले जा रहे हैं। हमारे मोपला भाई पागलपन कर बैठे यह सोचकर मेरा हृदय अत्यन्त क्षुब्ध है। उन्होंने अधिकारियोंको मार दिया है यह सुनकर हमें दुःख होता है। यह जानकर कि उन्होंने हिन्दू घरोंको लूटा है और कई सौ पुरुष और स्त्रियोंको निराश्रय कर दिया और वे दाने-दाने को मोहताज कर दिये गये हैं, दुःख होता है। मुझे यह सोचकर क्षोभ होता है कि उन्होंने हिन्दुओंको जबर्दस्ती मुसलमान बना लिया है। इन सभी कामोंसे उन्होंने देशकी भारी हानि की है। परन्तु फिर भी हमें दृष्टि-संतुलन रखना चाहिए। उनके ये काम भारतके तमाम मुसलमानोंके काम नहीं हैं, और ईश्वरको धन्यवाद है कि ये काम सभी मोपलाओंके भी नहीं हैं।