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किसी अन्याय के निराकरणके लिए हड़तालकी घोषणा करते हैं तो दरअसल हम उस अन्याय में हिस्सा लेना बन्द कर देते हैं, और इस प्रकार अन्यायीको अपने ही बल-बूतेके भरोसे छोड़ देते हैं। दूसरे शब्दोंमें हम उसे ऐसी स्थितिमें डाल देते हैं जिससे वह अन्याय जारी रखने की गलती देख सके। ऐसी हड़ताल तभी सफल हो सकती है जब इसके पीछे दुबारा उस कामपर न जानेका संकल्प हो।

इसलिए बहुत बड़ी-बड़ी सफल हड़तालोंके संचालकको हैसियतसे, मैं हड़तालके नेताओंके मार्गदर्शनके लिए उन सिद्धान्तोंको एक बार फिर नीचे दे रहा हूँ, जो इस पत्रके पृष्ठोंमें पहले भी छप चुके हैं।

१. सच्ची शिकायत के बिना कोई हड़ताल नहीं होनी चाहिए।

२. अगर हड़ताल करनेवाले लोग अपनी बचतके पैसेसे या धुनाई, कताई तथा बुनाई-जैसा कोई और काम करके कुछ कालके लिए अपनी जीविकाकी व्यवस्था स्वयं करनेमें समर्थ न हों तो हड़ताल नहीं होनी चाहिए। सार्वजनिक चन्दे या अन्य प्रकारके दान के भरोसे हड़ताल कभी नहीं करनी चाहिए।

३. हड़तालियोंको अपनी न्यूनतम माँगें निश्चित कर लेनी चाहिए जिनमें किसी परिवर्तनकी गुंजाइश न हो, और हड़ताल प्रारम्भ करनेसे पूर्व उसकी घोषणा कर देनी चाहिए।

अगर शिकायत सच्ची हो और हड़तालियोंमें अनिश्चित कालतक कामसे अलग रहने की सामर्थ्य हो तब भी, अगर उनके बदले काम करनेको दूसरे मजदूर कर्मचारी मिल जायें तो हड़ताल विफल हो सकती है। इसलिए कोई भी समझदार आदमी उस हालत में हड़ताल नहीं करेगा जब उसे लगता हो कि उसकी जगह काम करनेवाला आदमी आसानीसे मिल जायेगा। लेकिन कोई परोपकारी और देशभक्त व्यक्ति अगर अपने पड़ोसीके दुःखसे दुःखी होगा और उसमें उसका हमदर्द बनना चाहेगा तो वह उस हालत में भी हड़ताल करेगा जब वह देख रहा हो कि जितने मजदूरोंकी माँग है उससे ज्यादा मजदूर उपलब्ध हैं। कहने की जरूरत नहीं कि मैंने जैसी विनयपूर्ण हड़तालका वर्णन किया है, वैसी हड़तालमें धौंस-धमकी, आगजनी या अन्य प्रकारकी हिंसात्मक कार्रवाइयोंके लिए कोई स्थान नहीं है। इसलिए अगर यह सच हो कि अभी हाल में चटगाँवमें रेलगाड़ीको पटरीसे उतारनेका जो वाकया हुआ है वह किसी हड़तालीकी शरारत थी तो मुझे बहुत दुःख होगा। इस मामलेको, जो कसौटी मैंने सुझाई है, उस कसौटीपर परखनेपर स्पष्ट हो जाता है कि जो लोग हड़तालियोंके मित्र हैं उन्हें हड़तालियोंको कभी भी यह सलाह नहीं देनी चाहिए थी कि वे अपनी जीविका चलाने के लिए कांग्रेस-कोषसे या अन्य सार्वजनिक कोषोंसे पैसा लेनेके लिए अर्जी दें या उनसे पैसे लें। हड़तालियोंने जिस हदतक बाहरसे पैसेकी सहायता पाई या स्वीकार की, उसी हदतक उनकी सहानुभूतिका मूल्य कम हो गया। सहानुभूति-प्रेरित हड़तालकी खूबी इस बात में समाई हुई है कि सहानुभूति प्रदर्शित करनेवाला व्यक्ति कितनी असुविधा झेलता है, कितनी क्षति उठाता है।

जहाँतक यह सवाल है कि जो हड़ताली धमकियों और प्रलोभनोंके बावजूद मर्दानगीसे अपनी टेकपर डटे रहे हैं -- और ऐसे हड़ताली ५० प्रतिशतसे अधिक हैं --