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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

उनके लिए क्या किया जाये, या वे स्वयं क्या करें, तो इस सवालपर बंगाल प्रान्तीय कांग्रेस कमेटीको अपने विचार मैं पहले ही बता चुका हूँ। अपनी उसी रायपर मैं अब भी कायम रहना चाहूँगा। अगर इन हड़तालियोंने चाँदपुरके अन्याय-पीड़ित कुलियोंके प्रति सहानुभूतिसे ही प्रेरित होकर हड़ताल की और अपने भाइयोंको डराया-धमकाया नहीं, तो उन्हें ऐसा करनेका पूरा नैतिक अधिकार था, और उन्होंने ऐसी देशभक्ति और साथियोंके प्रति ऐसी हमदर्दीका परिचय दिया जिसकी उनसे आशा भी नहीं की जाती थी। मैं आशा करता हूँ कि वे अब तबतक फिर कामपर नहीं जायेंगे जबतक कि सरकार पूरी तरहसे और साफ तौरपर क्षमा-याचना नहीं करती, और सम्बन्धित पक्षोंको अपने-अपने घर वापस जाने के लिए कुलियोंको जो पैसा देना पड़ा है, वह पैसा उन्हें नहीं दे देती।

शरारत-भरी तवज्जह

बारीसालमें एक जिला प्रचार समिति है। अगर सिर्फ तवज्जह देन के लिए ही किसीकी बड़ाई की जा सकती हो तो यह संस्था बड़ाई करने लायक है। लेकिन अनुभवसे तो यह सिद्ध होता है कि तवज्जहके पीछे जब शरारत हो तो वह बड़ाई नहीं, हिकारत के लायक बन जाती है। मुझे लगता है कि बारीसालकी जिला प्रचार समितिका काम इसी दर्जेका है। यह समिति असहयोगकी कट्टर विरोधी है। जब हम लोग बारीसाल पहुँचे, मुझे एक रजिस्टर्ड पत्र दिया गया। उसमें कुछ सवाल पूछे गये थे जिनका जवाब मुझे सार्वजनिक सभामें देने को कहा गया था। उसमें मैं और मौलाना मुहम्मद अली बोलनेवाले थे। सवाल छपे हुए थे। मुझे व्यक्तिगत रूपसे हाथों-हाथ भी वे सवाल दिये गये। मैंने उनमें से एक-एकका पूरा जवाब दिया। लेकिन दूसरे दिन आश्चर्य हुआ जब मुझे उन प्रश्नोंके अपने उत्तरोंकी एक रिपोर्ट ठीक करनेके लिए दी गई। यह रिपोर्ट क्या थी, मेरे उत्तरोंका उपहास मात्र थी। उसके बाद एक सन्देशवाहक आया। उसने मुझे कुछ और कागज पत्र दिये जिन्हें पढ़कर मुझे उनमें लिखी बातोंका स्पष्टीकरण करना था। लेकिन आजतक मैं यह नहीं जानता कि वे पत्र किसने लिखे थे। सभी बिना हस्ताक्षर के थे। मैंने तो कभी किसी भी सार्वजनिक संस्थाको ऐसी गैर-जिम्मेदाराना हरकत करते नहीं देखा है। मुझे बताया गया कि यह सब काम सरकारी अधिकारियों द्वारा किया गया। इस तरह इसपर जनताका पैसा बरबाद किया गया। मेरी तरफ जो इतनी ज्यादा तवज्जह दी गई, उसमें मुझे न कहीं ऐसा लगा कि लोग अपना ज्ञान बढ़ानेको उत्सुक हैं और न यहीं दिखाई दिया कि वे मुझे अपनी भूलकी प्रतीति कराना चाहते हैं। अगर समितिने मुझे और मेरे साथियोंको बहस-मुबाहसे के लिए बुलाया होता तो एक बात होती। उससे भी अच्छा यह होता कि एक सार्वजनिक संस्थांके नाते वह हमारी उपस्थितिका उपयोग सम्बन्धित पक्षोंको एक जगह मिलाने के लिए करती। इस सारी तवज्जहमें मुझे एक ही चीज दिखाई दी : स्थानीय असहयोगियोंके कामको लोगोंकी नजरमें नीचा दिखानेकी एक नापाक ख्वाहिश। उनकी इन हरकतों को, मैंने अपने बंगाल के दौरेमें जो कुछ देखा, उसीको ध्यानमें रखकर परखा है। मुझे तो लगता है कि जानबूझकर और द्वेष-भावसे प्रेरित होकर असहयोग