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बहिष्कार किया जाता है तो क्या वे और ज्यादा मुनाफाखोरी नहीं करेंगे ? क्या गरीबोंसे पैसा लेकर अमीरोंकी थैलीमें डालना कोई ठीक काम है ?

सभी बड़े राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय व्यापारपर निर्भर करते हैं। अगर आयात बन्द कर दिये जाते हैं तो निर्यात भी बन्द हो जायेंगे और भारतीय व्यापारी बरबाद हो जायेंगे। क्या आप ऐसा चाहेंगे? आप भारतको मजबूत राष्ट्र बनाना चाहते हैं या कमजोर ?

ये सवाल या तो सर्वथा अज्ञानवश पूछे गये हैं या विद्वेषसे प्रेरित होकर। स्वदेशीपर पूछे गये इन सभी सवालोंके जवाब इस अखबार में विस्तारसे दिये जा चुके हैं। अगर जिला प्रचार समिति ऐसे सवाल उठानेके बदले सिर्फ चरखों और करघोंकी संख्या बढ़ाने में ध्यान लगाये तो जरूरतके लायक काफी कपड़ा, बल्कि जरूरतसे ज्यादा भी तैयार होने लगेगा, क्योंकि तब अकाल अतीतकी एक चीज बनकर रह जायेगा। क्या खुलनामें पैसेका अकाल नहीं है ? अगर लोगोंके पास पैसे होते तो उन्हें चावल मिल सकता था। वे चरखा और करघा चलानेकी दृष्टिसे शरीरसे काफी सक्षम हैं। उनमें से हर एक चरखा चलाकर अपने भोजन के लिए पर्याप्त कमाई कर सकता है। हाँ, यह ठीक है कि बम्बईके मिल मालिकोंने पहले काफी मुनाफा कमाया। लेकिन वर्तमान स्वदेशी आन्दोलनका तो तकाजा यह है कि हर प्रान्त खुद ही अपनी जरूरत के लायक पर्याप्त कपड़ा तैयार करे, पर्याप्त सूत काते। विदेशी कपड़े के बहिष्कारका मतलब पूरे विदेशी व्यापारका ही बहिष्कार नहीं है। भारतको अपने विकासके लिए जिन चीजोंकी जरूरत है, उनका आयात वह अवश्य करेगा, और जिन चीजोंकी उसे जरूरत नहीं है, उनका निर्यात भी करेगा। भारत आज जितना कमजोर और असहाय है उससे अधिककी गुंजाइश नहीं है। ईश्वरकी कृपासे स्वदेशी उस कमजोरीको अब दूर कर रही है।

१०. तिलक स्वराज्य कोषके लिए एक करोड़ रुपये में से कितना सचमुच जमा किया जा चुका है? कितनके लिए सिर्फ वचन ही दिये गये हैं ? स्कूलों, कालेजों, अस्पतालों, धर्मार्थ कार्यों आदि के लिए ऐसी कितनी रकम देनेका वचन दिया जा चुका है, जिसका उपयोग वास्तवमें स्वराज्य-सम्बन्धी सामान्य कार्योंके लिए उपलब्ध नहीं होगा ? और बम्बईके मिल-मालिकोंने विदेशी कपड़ेके बहिष्कारसे लाभ उठानेकी आशासे कितना दिया है ?

तिलक स्वराज्य कोषका हिसाब-किताब उचित समयपर प्रकाशित किया जायेगा। सवाल तैयार करनेवालोंको यह जानकर खुशी होगी कि बम्बईके मिल-मालिकोंने बहुत ज्यादा नहीं दिया है। सिर्फ मौलाना हाजी यूसुफ सोवानीने एक मोटी रकम दी है, क्योंकि वे एक पक्के असहयोगी हैं और उन्होंने अपना एक बेटा इसी कामके लिए दे दिया है। अधिकांश मिल मालिकोंने कुछ नहीं दिया।

एक बात मैं और कहना चाहूँगा। बारीसालमें मुझे मालूम हुआ कि जब सुरेन्द्र बाबू[१] वहाँ गये तो उनके खिलाफ हल्ला-गुल्ला मचाया गया। यह सुनकर मुझे बहुत दुःख

  1. १८४८-१९२५; कांग्रेसके संस्थापकमें से एक और १८९५ और १९०२ में उसके अध्यक्ष।