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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हुआ। असहयागियोंके लिए किसीको -- अपने कट्टरसे-कट्टर शत्रुको भी -- दुत्कारनेकी छूट नहीं है। दुत्कारना भी आखिरकार एक प्रकारकी हिंसा ही है। लेकिन सुरेन्द्र नाथ बनर्जीको दुत्कारनेका मतलब है अपने-आपको भूल बैठना। आज उनसे हमारा मतभेद है। लेकिन हमें उनकी अतीतकी सेवाओंको नहीं भुलाना चाहिए। एक समय वे बंगालके आदर्श थे। तब उन्होंने हमारी भावनाओंको स्वर दिया था। क्या अब हमें उन्हें दुत्कारना चाहिए ? यह तो मानना ही पड़ेगा कि हमसे मतभेद रखनेवाला हर नेता देशका दुश्मन नहीं है। हम चाहें तो उसकी सभाओंमें न जायें, और जायें भी तो मर्जी होनेपर हम उसका विरोध कर सकते हैं। लेकिन हमें अपना विरोध और असहमति शिष्टताके साथ, बल्कि आदरपूर्वक प्रकट करनी चाहिए -- विशेषकर तब, जब कि हम जिसका विरोध कर रहे हों वह कोई जाना-माना, पुराना-प्रतिष्ठित नेता हो।

ईसाई असहयोगी

एक ईसाई विद्यार्थी लिखता है :

वैसे तो हम ईसाई विद्यार्थी हैं, किन्तु आप हमारे राष्ट्रीय नेता हैं और हम महसूस करते हैं कि आपसे हमें यह सीखना चाहिए कि भारतका आदर्श और सिद्धान्त क्या है और उसकी आध्यात्मिक विरासत क्या है। इसलिए क्या आप ईसाई-धर्मके संगठन, पूजा-विधि और पोप-पादरी व्यवस्थाके सम्बन्धमें रचनात्मक सुझाव देते हुए पाश्चात्य ईसाइयतकी आलोचना करनेकी कृपा करेंगे ?

इस विद्यार्थीको यह नहीं मालूम था कि वह मुझसे जिस विषयपर जिज्ञासा कर रहा है, वह विषय मेरे क्षेत्रसे बाहर पड़ता है। फिर भी यह मेरे लिए बहुत खुशीकी बात है कि भारतीय-ईसाई राष्ट्रीय आन्दोलनमें अधिकाधिक दिलचस्पी ले रहे हैं। मुझे मालूम है कि बम्बई में सैकड़ों ईसाइयोंने तिलक स्मारक स्वराज्य कोषमें अपनी शक्ति-भर दान दिया है। मुझे मालूम है कि बहुत-से शिक्षित ईसाई लोग अपनी शानदार प्रतिभाका उपयोग राष्ट्रीय कार्योंमें कर रहे हैं। इसलिए जिस व्यक्तिने मुझसे जिज्ञासा की है, उसकी जिज्ञासाको में शान्त करना चाहता हूँ -- लेकिन उस तरहसे नहीं जैसा वह चाहता है, बल्कि उस ढंगसे जिस ढंगसे मैं कर सकता हूँ।

निकट भविष्यमें भारतका उद्देश्य सभी धर्मोके प्रति पूर्ण सहिष्णुताका व्यवहार है, उसकी आध्यात्मिक विरासत, सादा जीवन और उच्च विचार है। मेरे विचारसे पाश्चात्य ईसाइयतका जो व्यावहारिक रूप है, वह ईसाकी ईसाइयतको झुठला रहा है। मैं इस बातकी कल्पना नहीं कर सकता कि ईसा मसीह अगर हाड़-मांसका शरीर धारण किये आज हमारे बीच मौजूद होते तो वे आधुनिक ईसाई संगठनों, सार्वजनिक पूजन या आधुनिक पोप-पादरी व्यवस्थाको पसन्द करते। अगर भारतीय ईसाई सिर्फ 'सरमन ऑन द माउंट' के उन सन्देशोंमें अनुरक्त रहें, जो ईसाने सिर्फ अपने शान्त-चित्त शिष्योंको ही नहीं, बल्कि समस्त संतप्त संसारको दिये थे, तो वे कभी गलत रास्तेपर नहीं जायेंगे। और वे देखेंगे कि कोई भी धर्म झूठा नहीं है; वे देखेंगे कि वे अगर अपने-अपने ज्ञानके प्रकाशमें ईश्वरका भय रखते हुए आचरण करते हैं तो उन्हें धर्म-