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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

लोगोंको सहयोग देनेके लिए आमन्त्रित करना पड़ता है और उनके सहयोगपर निर्भर करना पड़ता है, जिनमें सभी प्रेमको भावनासे ही प्रेरित नहीं होते।

स्वराज्यके अन्तर्गत

एक दूसरे लेखक महोदयने मोपलोंके उपद्रवकी ओर इशारा करते हुए यह दिखाने की कोशिश की है कि असहयोगियोंकी कल्पनाका स्वराज्य तो मोपला राज ही होगा। मैं उस उपद्रवपर एक बेहतर निष्कर्ष निकालता हूँ। मोपला उपद्रवसे हमें बहुत स्पष्ट रूपसे समझ जाना चाहिए कि वर्तमान सरकार तत्त्वतः क्या है। तीन बातें तो बिलकुल स्पष्ट हैं :

१. समस्त आधुनिक विध्वंसक हथियारोंसे लैस रहनेपर भी, यह सरकार जान-मालको सुरक्षा नहीं दे पाई हैं। घटना हो चुकने के बाद उसने फिर व्यवस्था कायम कर दी, यह इसका कोई उत्तर नहीं है।

२. सरकार इतने समयसे राज करती आई है, फिर भी मोपलोंको शान्तिप्रिय नागरिक नहीं बना सकी। इसकी यह विफलता अपराधकी कोटिकी है।

३. एक ओर जहाँ वह मोपलोंके शौर्यको सही मार्ग देकर उसका उपयोग शान्ति और धर्मके कार्यों में करनेमें असमर्थ रही है, वहाँ दूसरी ओर उसने हिन्दुओंको अपने इन उच्छृंखल भाइयोंसे अपनी रक्षा करनेके लिए प्रशिक्षित करने की कोई फिक्र नहीं की।

असहयोगियोंने अभी स्वराज्य हासिल नहीं किया है। उनपर भले ही यह आरोप लगाया जा सकता हो कि वे बुराईकी तमाम ताकतोंपर काबू नहीं पा सके हैं, किन्तु मलाबारकी वारदातोंका गुनाह तो ईमानदारीसे कोई भी उनके मत्थे नहीं मढ़ सकता। मान लीजिए, वहाँ असहयोगियोंने ही उपद्रव भड़काया, लेकिन सरकारका तो यह कर्त्तव्य था कि वह उपद्रवको भड़कनेसे रोकनेका पूर्वोपाय करती और अव्यवस्था फैलने न देती; पूर्वोपायका सबसे साफ तरीका था उन अन्यायोंका निराकरण कर देना जिन्हें असहयोगियोंने इतनी सफलताके साथ अपने आन्दोलनका आधार बना रखा है।

लेकिन यह बताना बहुत आसान है कि असहयोगियोंकी छत्रछायामें स्वराज्य कैसा होगा। अव्वल तो ऐसा कोई काम ही नहीं किया जाता जिससे लोगोंमें इतना गम्भीर असन्तोष फैले। दूसरे, स्वराज्य के अन्तर्गत मोपलोंको अच्छी बातें सिखाई जातीं, और तीसरे यह कि यदि तब भी ऐसा उपद्रव खड़ा हो जाता तो सुलह-समझौता करानेवाले लोग अपनी जान खतरेमें डालकर भी शान्ति स्थापित करनेके लिए वहाँ जाते। आज जैसे दो असमान पक्षोंका संघर्ष चल रहा है, वैसा संघर्ष स्वराज्यके अधीन असम्भव होता।

"पूर्वधारित विद्वेष"

सरकारके लिए अपने आलोचकोंपर पूर्वविद्वेषसे प्रेरित रहनेका आरोप लगाना एक आम बात है। लेकिन मद्रासमें मुझे सरकार के पूर्व विद्वेषसे प्रेरित रहनेका एक साफ उदाहरण मिला है। पिछले मई महीने में 'देशभक्तन्' नामक एक तमिल पत्र में प्रकाशित एक लेखके कारण मुद्रक, मालिक, प्रकाशक और तीन सम्पादक, सभीको गिरफ्तार कर