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भाषण : तिन्नेवेलीमें

मौलाना अब्दुल बारी[१] तथा बहुतसे अन्य प्रतिष्ठित मुसलमानोंने भी खद्दरको अपनाया। पण्डित मोतीलाल नेहरूका जन्म एक ऐसे परिवारमें हुआ, जिसे हर तरह की सुख- सुविधा प्राप्त थी, किन्तु उन्होंने भी बुढ़ापेमें खद्दर अपनाया। चित्तरंजन दास वकालतके धन्धे में भारत के किसी भी वकीलसे पीछे नहीं थे, किन्तु उन्होंने भी खद्दर पहनना शुरू कर दिया। इन सभी महानुभावोंने जब खद्दरको अपनाया तो वे कोई मजाक तो नहीं कर रहे थे। और न उनकी पत्नियाँ ही ऐसा कोई मजाक कर रही थीं, जब उन्होंने धर्म मानकर प्रति दिन चरखा चलाना और वैसा ही मोटा खद्दर पहनना शुरू किया जैसा मोटा खद्दर पहने आप मुझे, मौलाना साहबको तथा डा० राजनको देख रहे हैं। मैं चाहता हूँ कि इस श्रोता समूहमें उपस्थित प्रत्येक स्त्री और पुरुष इसी वर्ष स्वराज्य प्राप्त करना अपनी प्रतिष्ठाका प्रश्न माने और हमारे इन प्रतिष्ठित देशभाइयोंकी तरह ही अपने मनमें यह बात बैठा ले कि स्वराज्य चरखा चलानेसे ही मिल सकता है; और अगर इस विषय में आपका इरादा सच्चा है तो आप ऐसा काम करेंगे जिससे इस जिलेके सभी बढ़ई चरखा और करघा बनाने में ही व्यस्त दिखाई देने लगें, सभी बुनकर विदेशी, बल्कि भारतीय मिलोंके सूतसे भी बुनाई करना छोड़ दें, और इस जिलेके घर-घरमें कुछ निश्चित घंटोंतक रोज चरखा चलने लगे। चरखेसे यह सब हो सकता है, ऐसा मैं इसलिए मानता हूँ कि यह अहिंसा और हिन्दू-मुस्लिम एकताका प्रतीक है, और इसलिए कि मैं जानता हूँ, जबतक हम अहिंसाधर्मका पालन नहीं करते और ऐसा विश्वास नहीं रखते कि इससे हमारे सारे दुःख दूर हो सकते हैं तबतक हम चरखा अनुष्ठानको सफल नहीं बना सकते। जैसे मैंने यह बताया कि आपको वह कौन-सा काम करना है जो सबसे अधिक सम्भावनाओंसे पूरित है, वैसे ही मुझे यह भी मालूम है कि हिन्दुओंके सामने कुछ बहुत बड़ी समस्याएँ मौजूद हैं, और अगर हम इस साल स्वराज्य प्राप्त करना चाहते हैं तो उनका समाधान जरूरी है। आपके सामने ब्राह्मण-अब्राह्मणका सवाल है, नाडारोंका सवाल है और पंचमोंका सवाल है। मेरे विचारसे ये सभी सवाल एक ही सवालमें समाये हुए हैं -- अर्थात् अस्पृश्यताके सवालमें। एक सनातनी हिन्दू होने का दावा करते हुए मैं इस समस्त श्रोता-समूहसे यह कहने की हिम्मत करता हूँ कि हमारे समस्त शास्त्रोंमें कहीं भी अस्पृश्यताकी व्यवस्था नहीं की गई है। एक हिन्दूके नाते ऐसा खयाल रखना मैं पाप मानता हूँ कि मनुष्यके स्पर्शसे कोई व्यक्ति अपवित्र हो सकता है। मुझे बड़ी लज्जाका अनुभव होता है, जब मुझसे कोई कहता है कि आपके मन्दिरोंमें, जिन्हें आप ईश्वरका स्थान कहते हैं, नाडारोंका प्रवेश करना वर्जित है। मेरे विचारसे ब्राह्मण-अब्राह्मण समस्याका समाधान आश्चर्यजनक रूपसे सरल है। शास्त्रोंके अध्ययनसे में जिस निष्कर्षंपर पहुँचा हूँ, वह अगर सही हो तो मेरे खयालसे ब्राह्मण कभी भी अपने लिए किसी विशेष सुविधा या अधिकारका आग्रह नहीं करता और उसके जीवनका सार चार अक्षरोंके एक शब्दमें निहित है -- "कर्त्तव्य"। उसका गौरवपूर्ण अधिकार तो यह है कि प्रतिष्ठा और पैसेवाले

  1. १८३८ - १९३६; लखनऊके एक राष्ट्रवादी मुसलमान जिन्होंने खिलाफत आन्दोलनमें प्रमुख भाग लिया।