पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 21.pdf/२३१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२०१
भारतके मुसलमानोंसे

लम्बी नजरबन्दीसे उनका उत्साह किसी तरह कम नहीं हुआ, उनमें कोई कमजोरी नहीं आई। जो बहादुरी उनमें नजरबन्द होते समय थी, वही बहादुरी उससे छुटकारा पाते समय भी थी।

नजरबन्दीसे छूटने के बादसे वे बराबर सच्चे राष्ट्रवादी बने रहे हैं, और आप सबको इस बातपर गर्वका अनुभव होता रहा है।

अपनी सादगी, विनय और असीम स्फूर्तिसे उन्होंने भारतीय जन-मानसको जिस तरह झकझोर दिया है, वैसा और कोई मुसलमान नहीं कर पाया।

इन सभी गुणों के कारण वे आपके बहुत प्रिय हो गये हैं। आप उन्हें अपना आदर्श पुरुष मानते हैं। इसलिए आपको इस बातसे दुःख है कि वे आपसे जुदा हो गये हैं। आपके अलावा और भी बहुत से लोग हैं, जिन्हें उनकी सुखद और प्रेरणाप्रद उपस्थितिका अभाव खलता है। मेरे तो वे अभिन्न अंग ही हो गये हैं। मुझे लगता है, जैसे मेरी दोनों भुजाएँ मुझसे अलग हो गई हैं। मुसलमानोंसे सम्बन्धित सभी विषयोंमें शौकत अली मेरे पथप्रदर्शक और सहायक थे। उन्होंने कभी भी मुझे गलत सलाह नहीं दी। उनकी निर्णय-बुद्धि बहुत ठोस थी और अधिकांश मामलोंमें उससे चूक नहीं होती थी। जबतक दोनों भाई हमारे बीच थे, मुझे हिन्दू-मुस्लिम एकता बिलकुल सुरक्षित लगती थी। इस एकताका मूल्य जितना वे पहचानते थे, उतना हममें से बहुत कम लोग पहचानते होंगे।

लेकिन यद्यपि हम सभीको उनकी कमी खलती है, फिर भी हमें अपने ऊपर दुःख या निराशाको हावी नहीं होने देना चाहिए। हममें से हरएकको बिलकुल अकेला रहकर भी डटे रहना सीखना चाहिए। केवल ईश्वर ही हमारा ऐसा पथ-प्रदर्शक है जिससे कभी चूक नहीं हो सकती, जो सदा हमारे साथ है। निराश होने का मतलब सिर्फ यही नहीं है कि हम अली-बन्धुओंको पहचान नहीं पाये, बल्कि, अगर धृष्टता न समझें तो कहूँ, यह भी है कि हम अपने धर्म को भी नहीं पहचानते।

कारण, क्या सभी धर्म हमें यह नहीं बताते कि हमारे प्रियजन जब शारीरिक रूपसे हमें छोड़कर चले जाते हैं, तब भी उनकी आत्मा हमारे साथ रहती है? इस मामलेमें तो बात सिर्फ इतनी ही नहीं है कि अली-बन्धुओंकी आत्मा हमारे साथ है, बल्कि यह भी है कि वे हमारे बीच उपस्थित रहकर हमें साहस, आशा और स्फूर्तिसे अनुप्राणित करते हुए देशकी जितनी सेवा करते, उससे कहीं अधिक सेवा वे जेलका कष्ट सहकर कर रहे हैं। अहिंसा और असहयोगका मर्म हमारे यह अनुभव करनेमें निहित है कि हम अपने लक्ष्यतक कष्ट सहन द्वारा ही पहुँच सकते हैं। खिताबों, कौंसिलों और अदालतों तथा स्कूलोंका परित्याग करना कष्ट-सहन (और दरअसल बहुत मामूली कष्ट- सहन) नहीं तो और क्या है ? यह प्रारम्भिक त्याग उस बड़े कष्ट सहनकी श्रृंखलाकी पहली कड़ी है जिसमें हमें जेल जीवनकी यातनाएँ सहनी पड़ेंगी और जरूरत हुई तो फाँसी के तख्तेपर चढ़कर अन्तिम बलिदान भी करना होगा। हम जितना अधिक कष्ट सहन करेंगे और हममें से जितने अधिक लोग कष्ट सहन करेंगे, हम अपने लक्ष्यके उतने ही निकट पहुँचेंगे।