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भारतके मुसलमानोंसे

चाहिए। आज यद्यपि क्रोधका सबसे बड़ा कारण मौजूद हैं, फिर भी मैं हर मुसलमानसे यह महसूस करनेको कहूँगा कि हम अहिंसासे ही पूरी विजय पा सकते हैं, और इस सालके भीतर भी पा सकते हैं।

ऐसी बात भी नहीं कि अहिंसाका कार्यक्रम कोई कल्पना-लोककी चीज है। जरा सोचिए तो कि सात करोड़ मुसलमानों (अगर हिन्दुओंकी बात रहने दें तो भी) के एकमत होकर कोई संकल्प करनेका मतलब क्या होता है। अगर सभी खिताबयाफ्ता लोगोंने अपने खिताब छोड़ दिये होते, सभी वकीलोंने अपनी वकालत छोड़ दी होती, सभी विद्यार्थियोंने स्कूल छोड़ दिये होते और सभीने कौंसिलोंका बहिष्कार किया होता, तो क्या हमें पहले ही सफलता नहीं मिल गई होती ? लेकिन हमें यह मानना होगा कि हममें से बहुतसे लोगों के लिए मोह और लोभ छोड़ सकना सम्भव नहीं हो सका है। यहाँके सात करोड़ लोग मुसलमान कहे जाते हैं और बाईस करोड़ लोग हिन्दू कहे जाते हैं, किन्तु उनमें से बहुत कम लोग सच्चे मुसलमान या सच्चे हिन्दू हैं। इसलिए अगर हमें हमारा उद्देश्य प्राप्त नहीं हुआ है तो उसका कारण हमारे ही भीतर है। और अगर हमारा संघर्ष, जैसा कि हम दावा करते हैं धार्मिक संघर्ष है, तो हम अपने अलावा और किसीके प्रति उतावलापन नहीं बरत सकते -- आपसमें एक-दूसरेके प्रति भी नहीं।

मुझे पूरा विश्वास है कि अली-बन्धु भी अहिंसाको भड़काने के मामलेमें उतने ही निर्दोष हैं, जितना निर्दोष मैं अपनेको मानता हूँ। इस तरह उनका बलिदान सर्वथा निष्कलंक है। उन्होंने इस्लाम और अपने देशके लिए, उनसे जो कुछ हो सकता था, सब किया है। अब अगर खिलाफत और पंजाबके प्रति किये गये अन्यायोंका परिशोधन नहीं होता और इस सालके भीतर स्वराज्य स्थापित नहीं होता तो उसमें दोष आपका और मेरा होगा।

हमें हर हालत में अहिंसापर दृढ़ रहना चाहिए, लेकिन निष्क्रिय नहीं रहना चाहिए। सिपाहियों के कर्त्तव्य के सम्बन्धमें जो कुछ कहनेपर अली-बन्धुओंको जेल मिली, वही बात दुहराते हुए हमें खुशी-खुशी जेल जाना चाहिए। हममें से अच्छेसे-अच्छे लोग भी हमसे अलग कर लिये जायें तब भी ऐसा माननेकी जरूरत नहीं कि अब संघर्ष नहीं चलेगा। और अगर नहीं चल सकता, तो हम न स्वराज्यके योग्य हैं और न खिलाफत तथा पंजाबके साथ हुए अन्यायोंका निराकरण कराने लायक हैं। हमें हजारों मंचोंसे यह कहना चाहिए कि चाहे सिपाही की हैसियतसे या किसी भी रूपमें मौजूदा सरकारकी सेवा करना हर मुसलमान और हिन्दूके लिए पाप है।

और सबसे बढ़कर तो हमें विदेशी कपड़े -- चाहे वह इंग्लैंडका हो या जापानका, अमेरिकाका हो या फ्रांसका अथवा किसी देशका -- पूर्ण बहिष्कारपर अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहिए, और अगर अभीतक नहीं किया हो तो अबसे अपने घरोंमें चरखे और करघेको दाखिल करना शुरू कर देना चाहिए और इस तरह अपनी जरूरतका सारा कपड़ा खुद बनाना चाहिए। हमारा यह काम हमारे देशकी स्वतन्त्रता और खिलाफतको रक्षाके साधनके रूपमें अहिंसामें हमारे विश्वासकी कसौटी होगा। यह हिन्दू-मुस्लिम एकताकी भी कसौटी होगा और हमारे अपने कार्यक्रममें हमारी