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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

आस्थाकी सर्वांगीण कसौटी होगा। मैं अपने इस विश्वासको एक बार फिर दुहराता हूँ कि विदेशी कपड़ोंके पूर्ण बहिष्कारके एक महीने के भीतर हम अपना सारा उद्देश्य पूरा कर सकते हैं। कारण, तब हम ऐसी स्थितिमें होंगे जब हमें हिंसाकी शक्तियोंपर नियंत्रण रखना, और जरूरत पड़नेपर, सविनय अवज्ञा करनेकी अपनी योग्यतामें पूरा विश्वास होगा।

अतएव सरकारने आपको जो गहरे घाव लगाये हैं उन्हें ठीक करनेका एकमात्र मरहम मुझे यही दिखाई देता है कि आप विदेशी कपड़ेका बहिष्कार करके और अपने लिए अपने घरोंमें ही कपड़ेका उत्पादन करके अहिंसाको कार्यरूपमें परिणत करें।

आपका मित्र और साथी,
मो० क० गांधी

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, २९-९-१९२१


८६. पत्र : प्रभाशंकर पट्टणीको

तिन्नेवेली
२४ सितम्बर, १९२१

सुज्ञ भाईश्री,

आपका पत्र[१] भटकता-भटकता मुझे यहाँ आ कर मिला है। आपने मुझे लिखा, इससे मुझे खुशी ही हुई है। आपको लिखनेका अधिकार है। यद्यपि मैं यह तो नहीं कह सकता कि मैं आपको अच्छी तरह समझ गया हूँ तथापि मैं अनेक वर्षोंसे आपको शुभचिन्तकके रूपमें जानता आया हूँ।

आप सबसे अधिक जोर राजकुमारके आगमनकी बातपर देते हैं। मुझे लगता है कि आपकी तत्सम्बन्धी दलील ही सबसे ज्यादा कमजोर है। वे इस शासनको महत्त्व प्रदान करने के लिए आ रहे हैं। इस समय आना अप्रासंगिक है। उन्हें मैं इस शासन-तन्त्रसे बाहर नहीं मानता हूँ। व्यक्ति के रूपमें कोई उनका विरोध नहीं करेगा, लेकिन भविष्य में इस शासनके राजाके रूपमें उन्हें कोई जगह नहीं दी जा सकती। आपने हमारे शास्त्रोंमें वर्णित राजभक्तिके जो उदाहरण प्रस्तुत किये वे यहाँ लागू नहीं होते हैं। कहाँ राम और कहाँ रावण ?

लेकिन आप अन्य विषयोंपर जो कुछ लिखते हैं उसका मुझपर जरूर असर होता है। माता-पिताके प्रति बालकोंके भक्तिभावको मैं तनिक भी कम नहीं करना चाहता। तथापि मैं निस्सन्देह यह मानता हूँ, कि आप जिन दुःखद परिणामोंकी चर्चा करते हैं वैसे दुःखद परिणाम घटित हुए हैं। लेकिन यह अविवेक क्षणिक है। इसके अतिरिक्त पिताके प्रति पुत्रमें जिस तरह भक्तिभाव होना चाहिए वैसे ही पुत्र के प्रति पितामें भी

  1. १२-९-१९२१ के इस निजी और गोपनीय पत्रमें श्री पट्टणीने असहयोग आन्दोलनके दुर्गुणोंकी ओर गांधीजीका ध्यान आकर्षित किया था।