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८९. हिन्दू-मुस्लिम एकता

एक परम मित्र लिखते हैं :[१]

इस पत्रके लेखक हिन्दू हैं और हिन्दू-मुस्लिम एकताके पक्षपाती है। फिर भी उनके दिलमें शंका पैदा हो गई है। जब इस एकताको दृढ़ता के साथ माननेवाले एक सज्जन के दिलमें यह शक हो गया है, तब जिन लोगोंके दिलमें हमेशा शक बना ही रहता है, उनका तो पूछना ही क्या ? इसलिए मैं यह मुनासिब समझता हूँ कि ऐसी शंकाओंका समाधान प्रकट रूपसे किया जाये। अगर हम दिनपर-दिन निडर होते जाते हों तो ऐसी परिस्थिति हो जानी चाहिए जिसमें हम तमाम शंकाओंका विचार जाहिरा तौरपर कर सकें। पूर्वोक्त शंकाको देखकर ऐसा साफ मालूम होता है कि लेखक अहिंसाका अर्थ नहीं समझ पाये हैं। न तो उन्होंने इस्लामका अर्थ समझा है और न हिन्दू-मुस्लिम एकताका ही।

जो अहिंसाको अपना धर्म मानते हैं वे जानते हैं कि उसके सामने वैरभाव -- बलात्कार -- तो ठहर ही नहीं सकता। अगर मलाबारके हिन्दू अहिंसाका पालन करनेवाले होते तो क्या मजाल थी कि कोई मोपला उनपर जबरदस्ती कर सकता ? यहाँ कोई यह कह सकता है कि सभी लोग अहिंसाके पाबन्द नहीं हो सकते। उनका कहना है तो ठीक; पर मैं कहता हूँ कि अगर कुछ थोड़े हिन्दू भी सचमुच अहिंसाका पालन करें तो उतने ही से दूसरोंकी रक्षा हो सकती है; अहिंसाका ऐसा प्रभाव है। इसपर अगर कोई यह कहे कि हिन्दू लोग अहिंसावादी नहीं हैं, तो फिर पूर्वोक्त सवाल रह नहीं जाता। क्योंकि जो अहिंसावादी नहीं हैं वे तो लड़कर अपनी रक्षा कर सकते हैं -- फिर चाहे वे अकेले हों, चाहे अनेक हों। शस्त्र-बलके द्वारा जिन-जिन अर्थोंकी सिद्धि हो सकती है वे सब अहिसाबलसे भी साध्य हो सकते हैं। जो शस्त्र-बलका उपयोग करते हैं वे भी तो शूर तभी कहाते हैं जब बलवान् से संग्राम करते हैं। पर अहिंसावादी तो शस्त्रास्त्र के बिना ही जूझता है, इसलिए उसके बलकी तो सीमा ही नहीं है। जो धर्मका रक्षण नहीं कर सकता उसे धर्मका अधिकार ही नहीं हो सकता। जो लोग जबरदस्ती मुसलमान बनाये गये हैं उन्होंने बलात्कारको क्यों सहन किया ? उन्होंने प्राण त्याग क्यों नहीं कर डाला? वे लड़ते हुए जीतकर क्यों नहीं आये या मर क्यों नहीं गये? अगर अंग्रेजोंने उनको बचाया और उससे वे जीवित रहे तो उन्होंने अंग्रेजोंका धर्म कबूल कर लिया। अगर मेरे बचानेसे जिन्दा रहते तो वे मेरा धर्म कबूल करते। उनका तो कोई धर्म ही नहीं था। धर्म तो एक व्यक्तिगत संग्रह है। मनुष्य स्वयं ही उसकी रक्षा और स्वयं ही उसका नाश कर सकता है। जिसकी रक्षा केवल समुदायमें हो सकती है वह धर्म नहीं; वह तो मत है।

  1. पत्र यहाँ नहीं दिया जा रहा है; उसमें पत्र-लेखकने यह शंका प्रकट की थी कि खिलाफ्तके मामले में फतह मिलनेपर कहीं ऐसा न हो कि धर्मान्ध मुसलमान हिन्दुओंको बलात् मुसलमान बनानेका प्रयत्न करने लगे।