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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

यह मानते हुए कि यह जानकारी सही है, मैं आपको यह सूचित करने के लिए लिख रहा हूँ कि आपको इस राजसे होकर नहीं जाने दिया जायेगा। अगर आप ऐसा करनेकी कोशिश करेंगे तो पुलिस आपको सीमापर रोक देगी।

उत्तरमें मैंने सिर्फ इतना लिखा :[१]

ये देशी-राज्य जो कुछ करते हैं, सबको मैं सरकारका ही अप्रत्यक्ष काम मानता हूँ। लेकिन मैं इन देशी-राज्योंको प्रत्यक्ष रूपसे ब्रिटिश शासनमें रहनेवाली प्रजासे भी अधिक असहाय मानता हूँ, इसलिए मैं बराबर यह जरूरी मानता आया हूँ कि इनके खिलाफ असहयोगी लोग संघर्ष न छेड़ें। इससे बेकारकी उलझन पैदा होगी। लेकिन किसीको-किसी स्थानसे होकर गुजरने भी न दिया जाये, यह तो साफ पागलपन है। और अगर मैं उस राज्यमें जाता भी तो वहाँकी प्रजाको मद्य-निषेध, स्वदेशी और अस्पृश्यतापर कुछ सीख-सलाह देने के अलावा और क्या करता ?

"पंचम लोग"

लेकिन अभी तो मुझे इन विभिन्न समस्याओंपर लिखनेका लोभ संवरण ही करना चाहिए। मद्रासमें दिये गये अपने भाषणोंमें सबसे ज्यादा विचार मैंने पंचमों, अर्थात् अस्पृश्योंकी समस्यापर ही किया है, इसलिए मैं इन टिप्पणियोंमें उसपर संक्षेपमें लिखना चाहता हूँ। "अस्पृश्यों" के साथ जितना निष्ठुरतापूर्ण व्यवहार इस प्रान्तमें किया जाता है, उतना और कहीं नहीं किया जाता। उनकी छाया मात्र से ब्राह्मण अपवित्र हो जाते हैं। जिन गलियोंमें ब्राह्मण रहते हैं, उन गलियोंसे वे गुजर भी नहीं सकते। ब्राह्मणेतर जातियोंके लोगोंका सलूक भी पंचमोंके साथ इससे कोई अच्छा नहीं होता। इन दो जातियोंके बीच पंचम कहलानेवाले लोग पिस रहे हैं। फिर भी मद्रास भव्य मन्दिरों और धार्मिक निष्ठावाला प्रदेश है। लम्बा तिलक, लम्बे बाल, खुला बदन -- इस रूपमें यहाँके लोग ऋषि-जैसे लगते हैं। लेकिन लगता है, उनका सारा धर्म इन्हीं बाहरी विधि-विधानों में सिमट कर रह गया है। जिस धरतीने देशको शंकर और रामानुजजैसी विभूतियाँ दीं, उसी धरतीपर सबसे अधिक कर्मठ और उपयोगी नागरिकोंके प्रति ऐसा डायरवादी जुल्म किया जाये, यह बात कुछ समझमें नहीं आती। और यद्यपि भारत के इस हिस्से में हमारे ही परिजनों के साथ ऐसा शैतानी बरताव किया जाता हो, फिर भी इन दाक्षिणात्य लोगों में मेरा विश्वास बना हुआ है। मैंने उनकी सभी बड़ी-बड़ी सभाओंमें उनसे स्पष्ट कहा है कि जबतक हम अपने बीचसे इस अभिशापको खतम नहीं करते तबतक स्वराज्य नहीं प्राप्त हो सकता। मैंने उनसे कहा है कि आज जो लगभग सारी दुनिया हमारे साथ सामाजिक कोढ़ियोंके जैसा व्यवहार करती है, उसका कारण यही है कि हमने भी अपनी जातिके पाँचवें हिस्से के साथ वैसा ही व्यवहार किया है। असहयोग हृदय परिवर्तनका आग्रह करके चलता है, और इस परिवर्तनकी अपेक्षा वह सिर्फ अंग्रेजोंके हृदयमें ही नहीं, बल्कि उसी हदतक हमारे हृदयमें भी रखता है। सच तो यह है कि मैं अपेक्षा करता हूँ कि पहले हमारा हृदय बदले और तदनन्तर एक

  1. यहाँ नहीं दिया गया; देखिए "पत्र : सिडनी बर्नको", १८-९-१९२१ के पश्चात्।