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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

लोग बराबर ऐसा आचरण करेंगे जिससे ऐसे देशभाई सेवा करनेको तत्पर हों और सेवा करें भी।

एक उचित सवाल

एक मित्रने हिन्दू-मुस्लिम एकतापर मोपला उपद्रवके प्रभावके बारेमें पत्र लिखा है। उसका भाव मैं नीचे दे रहा हूँ :

मैं हिन्दू-मुस्लिम एकताका पक्का हामी हूँ। लेकिन इस मोपला उपद्रवके कारण मेरे मनमें शंकाएँ उत्पन्न हो गई हैं। खिलाफतकी प्रतिष्ठाके लिए हम जो प्रयत्न कर रहे हैं, उसकी सफलताका मतलब है इस्लामका शक्ति-शाली होना। इस्लाम के शक्तिशाली होने का मतलब है दूसरे धर्मोके लोगोंसे इस्लाम स्वीकार करानेका प्रयत्न करना। क्या हमारे सामने अक्सर इस्लाम स्वीकार करने या मृत्युका वरण करनेका विकल्प नहीं रखा गया है ? क्या मोपलाजैसे लोग अहिंसाकी खूबी सीख सकते हैं? और यदि वे अपने धर्मके लिए अहिंसाकी खूबी समझ भी लें तो क्या वे अपने धर्मके प्रचारके लिए हिंसाका प्रयोग नहीं करेंगे? हिन्दू-मुस्लिम एकताकी जरूरतमें मेरा विश्वास अब भी बना हुआ है। लेकिन मैंने जो सवाल उठाये हैं, उन्हें क्या आप उचित नहीं मानते?

सवाल सचमुच उचित हैं -- भले ही कारण सिर्फ इतना हो कि वे उक्त पत्रलेखक-जैसे एक समझदार व्यक्तिके मनमें उठे हैं। लेकिन, मेरे विचारसे इस पूरे सवालके बारेमें एक गलतफहमी हुई जान पड़ती है। अगर इस्लामका आधार शरीरबल होता तो हमारा खिलाफतका पक्ष-पोषण करना गलत होता। 'कुरान' में कहीं भी ऐसा कुछ नहीं कहा गया है जिसके आधारपर लोगोंसे इस्लाम कबूल करानेके लिए शक्तिका प्रयोग करना उचित माना जा सके। 'कुरान पाक' में स्पष्ट कहा गया है कि "मजहबमें जबरदस्ती के लिए कोई गुंजाइश नहीं है।" पैगम्बर साहबका सारा जीवन मजहबके मामलेमें जोर-जबरदस्तीकी अस्वीकृतिकी एक कहानी है। जहाँतक मैं जानता हूँ, किसी भी मुसलमानने जबरदस्तीकी ताईद नहीं की है। अगर इस्लामको अपने प्रसार के लिए बल-प्रयोगपर निर्भर करना पड़ा तो वह विश्व-धर्म नहीं रह जायेगा।

दूसरे, ऐतिहासिक दृष्टिकोणसे देखें तो इस्लामके अनुयायियोंके खिलाफ कोई ऐसा आरोप सिद्ध नहीं हो सकता कि उन्होंने एक समग्र समुदायके रूपमें इस्लामको कबूल करनेके लिए लोगों के साथ जोर-जबरदस्ती की है। जब कभी बलपूर्वक लोगों से यह धर्म कबूल करानेकी कोशिश की भी गई है तब-तब जिम्मेदार मुसलमानोंने ऐसी कार्रवाईका प्रतिवाद किया है।

तीसरे, हिन्दू-मुस्लिम एकताकी कल्पनामें पहलेसे ही कुछ ऐसा नहीं मान लिया गया है कि इनमें से कोई भी पक्ष कभी कोई गलती नहीं करेगा। इसके विपरीत, इस एकताके विचारके पीछे कल्पना यह है कि हिन्दू-मुस्लिम एकताके प्रति हमारी निष्ठा मोपलों द्वारा लोगोंसे जोर-जबरदस्ती इस्लाम कबूल करानेके प्रयत्न-जैसे आघातोंको झेल लेगी, और ऐसे हर मामलेमें हम सम्बन्धित धर्मावलम्बियोंके समग्र समुदायको दोषी नहीं मानेंगे, बल्कि जो सचमुच दोषी हैं उनके द्वारा किये गये अन्यायका