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प्रतिकार करेंगे, और यह प्रतिकार हम प्रतिशोधकी कार्रवाई करके नहीं, बल्कि पंच-प्रणालीसे करेंगे।

चौथी बात यह है कि भारतको स्वतन्त्र करने के लिए अहिंसाको स्वीकार करने में हिन्दू-मुस्लिम एकताके लिए भी अहिंसाको स्वीकार करनेकी बात समाई हुई है। मोपलोंने निःसन्देह नियम तोड़ा है। लेकिन उसका कारण यह था कि उन्हें नई परिस्थितियोंको जानने-समझनेका कभी मौका नहीं दिया गया। उन्होंने खिलाफत के बारेमें अस्पष्ट रूपसे कुछ सुना तो था, किन्तु अहिंसा के बारेमें वे कुछ नहीं जानते थे।

पाँचवीं बात यह है कि हमें स्वराज्य के अन्तर्गत भारतपर कोई अनिष्ट आ जानेकी आशंका करनेकी जरूरत नहीं है; क्योंकि यह किसी हदतक निश्चित ही है कि अगर कांग्रेस तथा खिलाफतका काम करनेवाले कार्यकर्ताओंको मोपलों के बीच जाने दिया जाता तो उन्होंने इस अनिष्टको तभी दबा दिया होता जब वह अंकुरकी अवस्था में था। और जैसा हुआ उसके आधारपर प्रमाणपूर्वक कहा जा सकता है कि खिलाफतके कार्यकर्त्ता जहाँ-जहाँ जा पाये, वहाँ उन्होंने लोगोंको बहुत हदतक शान्त रखा। मेरे लिए तो मोपला उपद्रव हिन्दू-मुस्लिम एकताका एक प्रमाण है, क्योंकि उस उपद्रवके बीच भी हम शान्त रहे। एक परिवारके सदस्यकी तरह हम आपसमें कभी-कभी झगड़ा-तकरार करेंगे ही, लेकिन बराबर हमारे बीच ऐसे नेता रहेंगे जो हमारे मतभेदोंका समाधान करके हमें नियन्त्रित रखेंगे।

छठी बात यह है कि भविष्य में ऐसे उत्पातोंकी सम्भावना देखते हुए भी हिन्दू-मुस्लिम एकताका और कोई विकल्प क्या है? क्या अनन्तकालतक गुलाम बनकर रहना? अगर हम एक-दूसरेको अपना सहज शत्रु मानते हैं तो क्या हममें से किसीके सामने सदाके लिए विदेशियोंकी गुलामी करनेके अलावा और कोई चारा है? क्या मौजूदा विदेशी हुकूमत जबरदस्ती धर्म-परिवर्तन करनेको मजबूर किये जाने या उससे भी किसी बुरी बातकी सम्भावनासे भी बदतर नहीं है? अगर हिन्दू-धर्म बलप्रयोगको झेल नहीं सकता तो फिर वह किस कामका है? इस मित्रने जैसा सवाल पूछा है, क्या मुसलमान भी वैसे ही सवाल नहीं पूछ सकते? क्या ऐसी कोई सम्भावना नहीं है कि, जैसा तीन साल पहले शाहाबाद जिलेमें हुआ, वैसे ही हिन्दू लोग फिर लूटपाट और हत्याएँ करें? इसलिए क्या हर हालत में स्पष्टत: हिन्दू-मुस्लिम एकता ही इसका उपाय नहीं है? हिन्दुओं और मुसलमानोंमें से कोई भी एक पक्ष जब अपना आपा खो दे तो दूसरे पक्ष के सामने दो रास्ते हैं : या तो वह प्रतिकारस्वरूप हाथ उठाये बिना बहादुरीसे मर मिटे, जिससे शरारत तुरन्त बन्द हो जायेगी, अथवा वह प्रतिकारस्वरूप हाथ उठाये और इस तरह बहादुरीके साथ जिये या मरे। व्यक्तियोंके लिए ये दोनों रास्ते तबतक खुले रहेंगे जबतक इस दुनियाका अस्तित्व है। ये सारे सवाल इसलिए उठते हैं कि हम असहाय हो गये हैं। हम अपने धर्मके लिए अपना हाथ उठाये बिना मर मिटनेकी दिव्य कला भूल गये हैं, और उसी तरह जानको खतरेमें डाल कर आत्म-रक्षाके लिए बल-प्रयोग करनेकी भी कला भूल गये हैं। और हिन्दू-मुस्लिम एकता यदि दो समुदायोंके बहादुर स्त्री-पुरुषोंके बीचकी साझेदारी नहीं है तो वह