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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

एकता किसी कामकी नहीं। हमें बराबर एक-दूसरेमें विश्वास रखना चाहिए, लेकिन अन्ततः तो हमें स्वयं अपना और ईश्वरका ही भरोसा रखना चाहिए।

उचित भावना

एक बहनको मैंने स्वदेशीका काम और अधिक लगनसे करनेको लिखा था। उत्तरमें उन्होंने लिखा है :

मैंने इन महीनोंमें जितना थोड़ा काम किया है, उसका सवाल आते ही मेरी आँखोंमें आँसू आ जाते हैं। क्या ही अच्छा होता, अगर मैं आपको अपना हृदय चीरकर दिखा सकती कि उसमें क्या है। अपने पहले पत्रमें आपने मुझसे यह काम धार्मिक भावनासे अपनानेको कहा था, और मैं आपको विश्वास दिलाती हूँ कि मैंने अपना धर्म मानकर ही उसे अपनाया है। अपने मनमें मैं धर्म और देशभक्तिको कभी अलग-अलग नहीं मान पाई हूँ। मेरे लिए दोनों एक ही हैं। हम दावा तो बहुत-कुछ होनेका करते हैं, किन्तु आत्मविश्लेषण करनेपर पाते हैं कि हम कुछ नहीं हैं. हमने अपनी अनुभूतिकी सारी शक्ति खो दी है। हम दासताको व्यथाका पर्याप्त अनुभव नहीं करते, अन्यथा लोग इतने उदासीन कैसे रह पाते, जब कि समय इतनी तेजीसे भागा जा रहा है?

यह सम्भव नहीं है कि पाठकोंके लाभके लिए यह सुन्दर पत्र पूराका-पूरा प्रकाशित कर दूँ। जितना अंश उद्धृत करनेकी हिम्मत कर सकता था, उतना कर दिया है। उद्देश्य पाठकोंको -- स्त्री-पुरुष दोनों वर्गोंके पाठकोंको -- इस बहनके धार्मिक उत्साहका अनुकरण करनेको प्रेरित करना है। पाठकोंको यहाँ बता दूं कि यह बहन अपने एक सुन्दर और निःस्वार्थ तरीकेसे देश सेवा कर रही है।

एक बहादुर स्त्री

देशके कल्याणके लिए स्त्रियोंके कामके बारेमें जानकर मुझे जो खुशी होती है, उससे पाठकोंको अवगत कराते हुए मैं बेगम मुहम्मद अलीके कार्योंके बारेमें अपने आह्लादकारी अनुभव बतानेका लोभ संवरण नहीं कर सकता। पिछली बार जब हम लोग बम्बई में थे, तभी उन्होंने अपने पतिके काममें सार्वजनिक रूपसे हाथ बँटाना शुरू किया। उन्होंने प्रारम्भ किया स्मर्ना-कोषके लिए चन्दा माँगनेसे। उसके बाद हमारी बिहार, आसाम तथा पूर्वी और पश्चिमी बंगालकी कठिन और अनवरत यात्रामें वे हमारे साथ रहीं। उन्होंने महिलाओंकी सभाओंमें बोलना प्रारम्भ कर दिया। और मैंने देखा कि उनमें वक्तृत्वकी प्रतिभा अपने पतिसे कुछ कम नहीं है। उनके भाषण छोटे होते थे, किन्तु इस कारण उनके असरमें कोई कभी नहीं आती थी; और मेरे लिए तो यह कहना कठिन है कि वे अपने पतिको थोड़े-थोड़े शब्दोंमें अधिकसे-अधिक कहनेकी कला सिखा नहीं सकती थीं। पाठकोंको यह मालूम होना चाहिए कि बेगम साहिबाकी सिरसे पाँवतक की सारी पोशाक मोटी खादीकी थी; और पोशाकके मामलेमें मुसलमान बहनें हिन्दू बहनों की तुलनामें जरा कम ही खुशकिस्मत हैं, क्योंकि उन्हें