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राजभक्तिसे भ्रष्ट करनेका आरोप

सरकारकी चाकरी करना पाप है, जिसने भारतके मुसलमानोंके साथ धोखेबाजी की है और जो पंजाबमें अमानवीय व्यवहार करनेकी अपराधी है। मैंने यह बात कई मंचोंसे कितने ही सिपाहियोंकी उपस्थितिमें कही है। अगर मैंने सिपाहियोंसे अलग-अलग यह अनुरोध नहीं किया है कि वे नौकरी छोड़ दें, तो उसका कारण यह नहीं है कि मैंने वैसा अनुरोध करना नहीं चाहा; उसका कारण सिर्फ इतना ही है कि हममें उनके भरण-पोषणकी सामर्थ्य नहीं है। मैंने बिलकुल निस्संकोच भावसे सिपाहियोंसे कहा है कि अगर आप नौकरी छोड़ देनेके बाद कांग्रेस या खिलाफतवालोंसे सहायता लिये बिना गुजारा कर सकते हों तो आपको तुरन्त नौकरी छोड़ देनी चाहिए। और मैं विश्वास दिलाता हूँ कि जिस समय भारतके हर घरमें चरखेको स्थायी रूपसे स्थान मिल जायेगा और जब प्रत्येक भारतीय महसूस करने लगेगा कि हर व्यक्ति जब चाहे बुनाईसे सम्मानजनक ढंगसे अपनी आजीविका कमा सकता है, उसी समय में, गोलीसे उड़ा दिये जानेका खतरा उठाकर भी, भारतीय सिपाहियोंसे अलग-अलग और व्यक्तिगत रूपसे कहूँगा कि वे नौकरी छोड़कर बुनकर बन जायें। इसमें मैं तनिक भी आगा-पीछा नहीं करूँगा। कारण स्पष्ट है। क्या सिपाहियोंका उपयोग भारतको गुलामीमें रखने के लिए नहीं किया गया है? चाँदपुरमें उस भयंकर रात्रिमें क्या उनका उपयोग निरीह स्त्रियों, पुरुषों और बच्चोंको स्टेशनसे निकाल बाहर करने के लिए नहीं किया गया है? क्या उनका उपयोग मैसोपोटामियाके स्वाभिमानी अरबोंको गुलाम बनाने के लिए नहीं किया गया है? और क्या उनका उपयोग मिस्रवालोंको कुचलनेके लिए नहीं किया गया है? जिस भारतीयमें मानवताका तनिक भी लेश होगा, जिस मुसलमानमें अपने धर्मका तनिक भी अभिमान होगा, उसकी भावना अली-बन्धुओंसे भिन्न कैसे हो सकती है? इन सिपाहियोंका उपयोग कमजोर और असहाय लोगोंकी स्वतन्त्रता या उनके सम्मानकी रक्षा करनेवाले सैनिकोंके रूपमें तो कम किराये के कातिलोंकी तरह ज्यादा किया गया है। गवर्नर महोदयने हमसे यह कहकर कि अगर ब्रिटिश सिपाही न होते तो मलाबारमें क्या कुछ हो गया होता, हमारी बुरीसे-बुरी भावनाको उभारा है। मैं गवर्नर महोदयको बता देना चाहूँगा कि अगर बरतानियाकी संगीनोंकी सहायता न मिली होती तो मलाबारके हिन्दू उस मुसीबतको ज्यादा अच्छी तरह झेल लेते, अगर ब्रिटिश हुकूमत आड़े न आई होती तो हिन्दुओं और मुसलमानोंने मिलजुलकर मोपलोंको शान्त कर लिया होता, अगर खिलाफतका सवाल न होता तो मोपलोंने शायद कोई फसाद ही नहीं किया होता, हिन्दू लोग अपने अहिंसा- धर्मपर भरोसा करते हुए एक-एक मुसलमानको मित्र बना लेते, या नहीं तो हिन्दुओंके शौर्यकी परीक्षा ही हो गई होती। बम्बईके गवर्नर महोदयने हिन्दू-मुस्लिम विभेदको बढ़ावा देकर अपना और अपने पक्षका (दोमें से जिसका भी हो) अहित किया है, और ऐसी टिप्पणी लिखकर, जिसका अर्थ यह लगाया जाता है कि हिन्दू लोग बिलकुल असहाय प्राणी हैं, जिनमें अपने घर-बार या धर्मकी रक्षा करनेकी सामर्थ्य नहीं है या उनके लिए उनमें मर मिटनेका साहस नहीं है, हिन्दुओंका अपमान किया है। लेकिन अगर गवर्नर महोदयका कहना ही ठीक हो तो हिन्दू लोग जितनी जल्दी इस दुनियासे मिट