पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 21.pdf/२६४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

१०१. मेरी लँगोटी

मैंने अपने जीवनमें जो भी परिवर्तन किये हैं, सभी किसी-न-किसी महान प्रसंगको लेकर ही किये हैं। और ये परिवर्तन मैंने इतना सोच-विचार कर किये हैं कि बादमें मुझे शायद ही पछताना पड़ा हो। फिर, ऐसे परिवर्तन मैंने तभी किये हैं जब उन्हें किये बिना मैं रह ही नहीं सकता था। ऐसा ही एक परिवर्तन मदुरामें मैंने अपनी पोशाकके बारेमें किया।

इसका विचार मेरे मनमें पहले बारीसालमें आया। खुलनाके अकाल पीड़ितोंकी ओरसे जब ताना मारते हुए मुझसे कहा गया कि उधर वहाँके लोग अन्न-वस्त्र के अभावमें मर रहे हैं और इधर आप कपड़ोंकी होली जला रहे हैं, तो मुझे लगा कि एक लँगोटीसे ही मुझे सन्तोष करना चाहिए और अपना कुरता तथा धोती [ खुलनाके लोगोंके लिए] डा० रायको भेज देने चाहिए। किन्तु मैंने उस भावावेशपर नियन्त्रण कर लिया। कारण, उसमें अहंकारका भाव था। मैं जानता था कि उस तानेमें कोई सच्चाई नहीं है। खुलनाके लोगोंको मदद दी जा रही थी और एक ही जमींदारमें उनके दुःखके निवारणकी पूरी सामर्थ्य थी। इसलिए मेरा कुछ करना जरूरी नहीं था। दूसरा प्रसंग तब आया जब मेरे साथी मुहम्मद अली मेरे ही सामने गिरफ्तार कर लिये गये। उनकी गिरफ्तारीके बाद तुरन्त मैं सभा में गया। उसी समय कुरता और टोपी उतार देनेका इरादा किया। लेकिन फिर ऐसा सोचकर कि इसमें दिखावटीपनका दोष आ जायेगा, मैंने इस बार भी अपने भावावेशपर नियन्त्रण कर लिया।

तीसरा प्रसंग मद्रास यात्रा के दौरान आया। लोग मुझसे कहने लगे कि हमारे पास तो पर्याप्त खादी ही नहीं है। और खादी मिलती है तो खरीदनेको पैसा नहीं है। मजदूर लोग अगर अपने विदेशी कपड़ेकी होली जला दें तो फिर वे खादी लायें कहाँसे ? यह बात मेरे हृदयमें घर कर गई। इस दलीलमें मुझे सत्यका आभास मिला। "गरीब लोग क्या करें ?" -- इस विचारसे मैं आकुल हो उठा। अपना दुःख मैंने मौलाना आजाद सोबानी, श्री राजगोपालाचारी, डा० राजन आदिको सुनाया और बताया कि अब मुझे सिर्फ एक लंगोटी पहनकर ही रहना चाहिए। मौलाना साहबने मेरा दुःख समझा। उन्हें मेरा विचार बहुत पसन्द आया। दूसरे साथी चिन्तित हो उठे। उन्हें लगा कि इतने बड़े परिवर्तनसे तो लोगों में घबराहट छा जायेगी। कुछ लोग इसे समझ नहीं पायेंगे, कुछ लोग मुझे पागल मानने लगेंगे, और मेरा अनुकरण करना सभीको असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य लगेगा।

मैं चार दिनोंतक इन विचारोंका मंथन करता रहा और दलीलोंपर गौर करता रहा। अपने भाषणोंमें लोगोंसे कहने लगा कि अगर आपको खादी न मिले तो आप सिर्फ लंगोटी पहनकर ही रहिए, किन्तु विदेशी कपड़ेको तो उतार ही फेंकिए। लेकिन ऐसा कहते हुए मुझे बड़ा संकोच होता था। जबतक मैं धोती-कुरता वगैरह पहन रहा था तबतक मेरी इस बातमें कोई जोर नहीं आ सकता था।